पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भारत का सर्वोत्तम गुण आजकल हम जिधर देखते हैं उधर देशोन्नति करो २ यही कहते लोग दिखाई पड़ते हैं। पर यह हमारी समझ में नहीं आता कि जो इस देश का सर्वोतम गुण है, जो यहां का स्वाभाविक गुण है, उसकी ठीक उन्नति हुए बिना और सब बातो को उन्नति क्यों कर हो सकती है। आज दिन हम सभी बातों में सब देशों से होन हैं । हाँ कुछ एक संस्कार शेष हैं तो उसी हमारे सर्वोत्तम गुण का और विद्या नहीं है तो भी गान विद्या में ग्वालियर बाले संसार भर से श्रेष्ठ नहीं तो किसी विदेशी गन्धर्व से न्यून भी नहीं हैं। कविता के भो यदि लिखने वाले हों तो भलीभांति समझने वाले प्रायः सभी स्थानों में दस पांच विद्यमान हैं। धन नहीं है तो भी उत्साह ऐसा है कि एक एक साधारण गृहस्थ ब्याह और पितृकाम्यं में जी खोल के घर फूंक तमाशा देखता है । धर्म पर श्रद्धा भी इतनी स्थित ही है कि माष की रातों को केवल एक साधारण सा कपड़ा ओढ़े नंगे पैरों कोस २ भर गंगा स्नान करने जायंगे पर विमियों के आरामतलब मजहब और मरणानन्तर विहिश्ती नियामतों और अनन्त जीवन इत्यादि के माया जाल में फंसना तो दूर रहा उनकी चिकनी चुपड़ी बातें सुनना भी न पसन्द करेंगे। एक दिन एक काली मेम साहबा हमारे कानपुर में जनाने घाट पर उपदेश देने गई थी। एक स्त्री की ओर हाथ का इशारा करके कहने लगी, बहेन हम तुम लोगों को मुक्ति का सच्चा रास्ता दिखाने को आए हैं। उस आर्य रमणी ने उत्तर दिया कि 'तुम बहिनी राह दिखावे नहीं माच्छात मुकुति देने आई हो प हमका छुयो न । हम नहाय चुकी हन । हमका तुम्हारि मुकुति न चाही'। ऐसे २ सैकड़ों उदाहरण हमारे पाठकों को दृष्टिगोचर हुवा करते होंगे जिनसे तनक ही विचारने पर ज्ञात हो जायगा कि कुछ हो हमारे यहाँ की सहृदयता (जिंदादिली) का लेश आज भी बना है। धर्म रुचि, धर्माभिमान, जाति गौरव इत्यादि गुण, जो आत्मा से संबंध रखते हैं, अद्यापि निःशेष नहीं हुए और सबसे पहिले इन्ही बातों पर अधिक जोर देने से कुछ हो सकता है, क्योंकि जहां अपने चित्त की प्रसन्नता, अपनी नामवरी, अपना धर्म इत्यादि २ की ममता है वहां अपने देश का ममत्व दृढ़तम हो जाना कोई बहुत कठिन बात नहीं है। अपना चाहे जैसा हो फिर भी अपना ही है। अपन अपने आय, ऐसी २ कहावतें यहां वाले असंख्य लोग जानते हैं। यदि इन्हीं का अतीव विस्तृत अर्थ बहुत दूर तक समझाया जाने का प्रयत्न किया जाय तो क्या देशोन्नति की बड़ी दृढ़ नीव पड़ जाना कठिन है ? हमारे पूर्वज बड़े दूरदर्शी थे जो कहि गए हैं 'दुर्लभम् भारते जन्मः' । जिसका उपदेश है 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। यदि ऐसे २ बचन खूब जोर देकर समझाए जाय तो कौन मनुष्य होगा जिसे धरती माता की सच्ची भक्ति न उत्पन्न हो उठे। जो देशोन्नति को मूल है, जिस बात का कुछ अंकुर है, वही बात सहज में फलित भी हो सकती है। पर जिस