पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/८५

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बस बस होश में आइए ] बात का चिह्न भी अवशिष्ट न रहा उसकी नए सिरे से जड़ जमाना कैसे दांतों पसीना आने का विषय है ? अतएव हमारी समझ में जो जो सज्जन देशोन्नति के इक्षक हैं उन्हें सबके पहिले और सब झगड़ों को छोड़ के केवल इस बात पर कटिबद्ध होना चाहिए कि आपस में सच्चा प्रेम, दृढ़तम प्रेम बढ़े। तदनतर जिस विषय की उन्नति चाहो सहज में हो सकता है, क्योंकि यही यहां का सर्वोत्तम गुण है और यही अद्यापि सर्वथा निर्मल नहीं हुआ। ___खं. ३, सं० २ ( १४ अप्रैल, ह० सं० १) बस बस होश में आइए उचितवक्ता भाई ! वाह ! भारत जीवन साहब, धन्य ! 'सब को ज्ञान दें आप कुत्तों से चिथवावें'-तुम्हें क्या हुआ है ? जो बातें आपुस में निबट लेने की हैं उनको गोहराते फिरना । छिः ! छिः ! बच्चे हो ? लावनी वालों की सी फटकेबाजी से फायदा! ....ज्यपाद भारतेंदु जी के आगे हाथ जोड़ना कोई ऐब है ? रामकृष्णादिक प्रातःस्मरणीय भी तो जन्म से ब्राह्मण न थे। फिर क्यों उनके नाम पर शिर झुकाते हैं ? ब्राह्मण ही यदि बपतिसमा ले ले तो उसे प्रणाम करोगे? नैः । 'ब्रह्मजानाति ब्राह्मणः'। फिर यहाँ 'येषाम् सदा सर्वगतो मुकुंदस्तेमानवाः किन्न मुकंद तुल्याः' पर हरताल लगावोगे ? और सुनो बाबू जी नहीं हैं तो क्या बाबू गोकुलचंद जी जिसे अधिकार दें वही हरिश्चंद्र सर्वस्व छाप सकता है वा नहीं ? लड़ा चाहो तो सौ बहाने हैं नहीं तो लिखने की सौ बातें हैं। यदि गाली गलौज ही करना हो तो हमें जो चाहो दोनों महोदय कह लो। एक बके तो दूसरा भी नंग नाच पर कमर बांधे यह कौन सम्यता है ? अरे बाबा! तुम सर्व साधारण के अग्रगामी हो! तुम्हारा नमूना देख के औरों को कम उपदेश होगा? सोचो तो! खैर बहुत हो चुका, कब तक कर्कसा सराध रहेगी? इसीसे कहते हैं होश में भावो । होनी थी सो हो ली आगे से हमें विश्वास है हमारे प्यारे दोनों सहवर्ती आप समझ लेंगे। पर तुम्हारी इस बेफसली फाग की बेसुरी सान प्रेमियों के कान की झिल्ली उड़ाये देती है। न जाने सारसुधानिधि ने ३० मार्च को तुम्हारे व्यर्थ प्रलाप को क्यों स्थान दान दिया है। खैर हमने समझ लिया कि निधि ही में सुधा और विष दोनों का निर्वाह है। पर तुमने कौन सी सुरापान करके कहा है कि 'भारतेंदु का मरना क्या होली है'। अरे राम राम ! इसी दुःखदायक समाचार में तुम्हें हंसी सूझनी थी ? छिः, तुम्हारी आधी बात का उत्तर तो हम पहिले ही दे चुके हैं पर इतमा और समझ लीजिए कि यदि व्यवहार की रीति से हाथ जोड़ना दुषित समझो तो अंगरेजों के सामने ( जो किसी वर्णाश्रम में नहीं ) शायद एक तुम्ही होगे जो हाथ न जोड़ते हो ! नही बरसों से तो यवनों की लातें खाते आये हो, अभी कौन सी स्वतंत्रता मिल गई जो हाथ जोड़ना आक्षेपनीय समझने लगे ?