पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हची चोट निहाई के माथे लोगों ने सच कहा है, बहुत सीधापन अच्छा नहीं होता । हमारे हिंदू भाई यों तो आपस में बड़े काइयां, पर दूसरों से अपना स्वत्व रक्षण करने में निरे गावदी हैं। इसी से कोई हो, कैसा ही हो, इन्हीं के माथे देता है । हमारी सरकार बड़ी प्रजा वत्सल है, पर एतद्देशी अपनापन बचाने के योग्य नहीं है। इसी से कुछ होने पर भी कुछ नहीं समझे जाते। कुछ हो, हुची चोट निहाई के माथे । रावलपिंडी में दरबार हुआ । अमीर साहब का सत्कार हुआ । वहां भी हमारे ही महाराजों का यथोचित सन्मान नहीं। अमीर साहब से यह लोग धन, बल, साहस, प्रतिष्ठा, प्रेम, शायद किसी बात में कम नहीं, पर निरे सीधे सादे होने के कारण इनकी पूछ नहीं। जहां अमीर अबदुल रहिमान साहब सो २ नखरे से आए, देव समान पूजा हुई, हजारों की सामग्री उनकी भेंट पूजा में लगी, वहां हिंदुस्तानी राजों की क्या खातिर हुई ? ओह, घर के हैं । इनके मानापमान से क्या हानि लाभ सम्भव है ? काम पड़ेगा तो रुपया और फौजें इनकी स्वाहा होंगी, क्योंकि हुची चोट निहाई के माथे । और सुनिए, मिस्र में मेंहदी से उलझने को भी हिंदुस्तानी ही झोंके गए हैं। यदि रूसराज कुछ सन के तो भी हुची चोट निहाई के माथे । हमी तोप के मुहरे पर होंगे । हमारे ही देश की लक्ष्मी का हवन होगा । जवाब इस्का यह होगा कि तुम्हारी रक्षा के लिए सब होता है । हम कहते हैं हमारी ही रक्षा किस लिए की जाती है ? इसी लिए न कि हम कमाते जाएं और आप ले-ले के अपना घर भरते जाइए ? जब तक हमारी रक्षा हम स्वयं न करेंगे तब तक कुछ नहीं होना । होना केवल यही कि हुची चोट निहाई के माथे । पाठक, कुछ अपनी रक्षा का फिक्र है ? हमारे लाला भैया नित्य पूछा करते हैं 'गुरू रूस को क्या खबर है ?' मानी रूसी आके इन्हीं को राजा बनायेंगे । आपस में एका नहीं, देश की भक्ति नहीं, फिर क्या है, जो पड़े सो सहना । आदमी भरती होने का हुकुम है । इस्से दिहात में नादिरशाही है। लड़ाई का सामान चारों ओर हो रहा है । बस यही खबर है । सबके हातों लुटने को, पिटने को, कटने को हिंदुस्तानो हैं क्योंकि यह जानते भी नहीं कि आत्मरक्षा क्या है। तन, मन, धन, लोक, परलोक, धर्म, कर्म सब अपनी मातृभूमि पर निछावर कर देना यहां वालों ने सीखा ही नहीं । इसी से सब की हुची चोट निहाई ( अर्थात् इनका सिर ) के माथे पड़ती रही है, पड़ रही है, पड़ती रहेगी। खं. ३, सं० २ (१५ अप्रैल ह० सं० १)