पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तत्व के तत्व में अंगरेजीबाजों को मूल है ] खास आत्मा से समझने के विषय हैं उनको कोई बिचारा हमारे पूज्यपाद रिषियों के मुकाबिले पर कितना समझेगा ? कैसी हंसी का विषय है कि तत्व शब्द तो बड़े २ अंगरेजों के मुख से निकलता ही नहीं। लिख के किसी प्रोफेसर से पढ़ा दीजिए । कोई टटू कहेगा, कोई टटवा कहेगा, कोई बहुत विचित्र मुंह बनाके तत्व कह देगा । भला तत्व का तत्व समझना इनका काम है ? अब समझने की बात है कि जिस बात को गुरू स्वयं नहीं समझते उसे चेले बिचारे क्या समझेंगे ? हमारे यहां पांच तत्व माने गए हैं । पृथिवी-इससे यह न समझना चाहिए, जिस पर हम लोग रहते हैं, क्योंकि इसमें तो पांचों का संमेलन है। पर पृथ्वी तत्व उस सूक्ष्म शक्ति का नाम है जिसमें गंध गुण रहता है । गंध भी सुगंध दुर्गध को नही कहते । वह वह शक्ति है जिसमें न्यून से न्यून वा अधिक से अधिक नासिका के द्वारा अनुभव किया जाने वाला गुण स्थित रहता है । दूसरा तत्व, आप जिसे स्थूल भाषा में जल तत्व करते हैं, वह घट्ट २ पिया जाने वाला पानी नहीं, बरंच रस अर्थात् द्रव गुण, जिसे महा मोटी भाषा में लचक व नजाकत का आधार समझना चाहिए । तेज अर्थात् अग्नि तत्व-यह भी रूप अर्थात् नेत्र से जाना जाने वाले गुण की बोधक शक्ति, वायु-अर्थात् स्पर्श (छूने ) के विषय का उद्बोधक गुण, आकाश-अर्थात् यावत् दृश्य और अदृश्य वस्तु के हिलने चलने आदि की अवकाश दायक शक्ति, जिसे शन्द गुण कहते हैं। जितने पदार्थ हम देखते वा ज्ञानेंद्रियों द्वारा अनुभव करते हैं, सब में प्रकाश व प्रछन्न रूप से यह पांचों गुण (कोई न्यून कोई अधिक) विद्यमान रहते हैं । ऐसी कोई दृश्य वस्तु नहीं है जिसमें पृथ्वी, तेज, वायु और आकाश तत्व अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध नामक गुण विशिष्ट शक्ति न हो। एक लोहे का टोस डण्डा लीजिये । उसमें छुआ जा सकने का गुण और लंबाई मोटाई देखी जा सकने का गुण, यह दोनों। वायु और अग्नि तत्व का तो प्रत्यक्ष ही है । पृथिवी का धर्म आपको बहुत ही सूक्ष्म अनुभव से मालूम हो जायगा, क्योंकि वह उस्मे महा प्रछन्न रूप से । यदि उसे किसी महा सुगन्धित व दुरगन्धित वस्तु में कुछ दिना पड़ा रख के निकाल लीजिये और बिलकुल धो के पोंछ डालिए तो भी आपको कुछ अनुभव होगा। अब माप समझ सकते हैं कि उस दंडे में यदि सुगन्ध दुरगन्ध के धारण की शक्ति अर्थात् पृथ्वी तत्व का धर्म न होता तो वह उनको न ग्रहण कर सकता। यदि हमारे इस कहने पर हंसी आवै तो पृथ्वी शब्द का एक अर्थ फैलाव है। सो लंबाई चौड़ाई मुटाई को भी हम पृथ्वी तत्व का बोधक कह सकते हैं । अब जल तत्व न होता तो उस्को गल के पानी सा हो जाने व झुकने आदि की सामर्थ्य कहां से आती ? और आकाश सत्व की परीक्षा उस पर एक ढेला मारके कर लीजिय । ठन से बोलेगा । नहीं तो ऊपर नीचे और चारों ओर तो आकाश हई है। भीतर का हाल तब खुल जायगा जब उसमें का एक भी अणु उससे प्रथक् करोगे । क्यों, पांचों तत्व हैं न? खं० ३, सं. ३ ( १५ मई-जून सन् १८८५ ई.)