पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९५

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प्रेम एव परो धर्मः ] बनी रहे, पर गर्भ स्थापन के समय अवश्य हो प्रेम की आवश्यकता है। शरीर की बाहरी बनावट देखिये तो पंचतत्व के ऐक्य बिना नहीं। क्या एक छोटे से छोटा लोम भी कोई दिखा सकता है जहां पांच में से एक का भी अभाव हो ? और लीजिये, जहां एक का भी ह्रास होगा वहां शरीर ही किसी काम का नहीं रहेगा । भोवरी बनावट देखिये, वहां भी मन बुद्धि आदि तत्व कहाँ है कहाँ नहीं यह सिद्ध करना महा कठिन होगा । अब समझने की बात है, जो हमारा कारण वह प्रेममय, हम स्वयं प्रेमोत्पन्न, फिर प्रेम के बिना हमारा धर्म क्या हो सकता है ? यहां हमें यह भी कहना अवश्य होगा कि पूजा पाठ, स्नान दानादि को हम यह नहीं कह सकते कि धर्म नहीं है। पर हां, यह स्वयं धर्म नहीं वरंच धर्म वृक्ष के एक छोटे से छोटे पत्र हैं । इनको यदि हम छोड़ भी दें तो कोई बड़ी हानि नहीं । कभी २ किसो २ स्थान पर हमें छोड़ना पड़ता है। यदि हम महा निर्बल जराग्रस्त हों तो हमें माघ स्नान श्रेयस्कर न होगा। पर अपने घर में धर्म को हम कभी, कहीं, कुछ काल के लिये, छोड़ेंगे तो दुःख पावेंगे। क्योंकि अपनेNatureके विरुद्ध चलते हैं । हमारा जाति स्वभाव तो बहुतों का एक हो जाता ही ठहरा । फिर उसके प्रतिकूल होके हमें सुख कैसा ? हमारा निर्वाह कहाँ ? आग से यदि दाहक शक्ति निकाल डाली जाय तो वह कोयला है। शरीर से कोई तत्व पृथक हो तो वह मृतक है। इसी भांति हम में प्रेम का किंचिन्मात्र भी आदर्श न हो तो हम पापी, दुःखभाजन और अशांत हो जायंगे। हमारा आदि कारण ईश्वर और हमारे साक्षात् कारण माता पिता अथ व उनका कायं हमारा शरीर । उसकी भीतरी बाहरी बनावट सब प्रेम अर्थात् ऐक्य है । यह निश्चय हो गया तो भी जिनको वेद शास्त्रादि के प्रमाणों हो से शांति होती है, उनके लिये "ब्राह्मणोऽस्यमुखमासोदित्यादि" रिचा के अभिप्राय को समझ लेना भी हमारे कथन की ओर से पूर्ण संतोष देगा। साफ लिखा है कि जीवधारी मात्र चार वर्ण में विभक्त हैं । वे एक ही परमेश्वर, जिसे हम अपनी बोली मे प्रेमदेव कहते हैं, व विराट रूप अथवा रूपक रीति से वर्म पुरुष ही के मुख हाथ इत्यादि हैं। बुद्धिमान लोग विचार सकते हैं कि हमारे हाथ पांव इत्यादि हमसे प्रथक नहीं हैं, अर्थात् इन सबकी एकत्र स्थिति ही शरीर का शरोरत्व है। इसी प्रकार चारों बरण की एकचित्तता हो ऐहिक और अगोचर विषयक सुख का मूल है । जिस्को प्रेम कहते हैं । बहुतेरे संदेह कर सकते हैं कि धर्म साधन की परावस्था, जिसमें सांसारिक संबंध छोड़ के एकांतवास करके केवल भगवताराधन ही से काम रहता, वहां किसी से प्रेम संबंध क्यों कर रहेगा ? इसके उत्तर में हम कहेगे कि हमारी आत्मा का और परमात्मा का एकत्व अर्थात् आत्मिक सुख का जनक हमारा प्यारा प्रेम तो कही जाता ही नहीं, और जहाँ परमात्मा से सम्बन्ध होगा वहां तत्संबंधी जगत का संबंध स्वयं सिद्ध है। इसी का प्रमाण हमारे रिषियों के उपदेश में अद्यापि विधमान है कि यद्यपि उन्होंने संसार के विषय छोड़ दिये थे तो भी हम संसारी जीवों के परम कल्याणजनक व्याख्यान निर्माण