पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९७

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प्रेम एव परो धर्मः ] एवं परो धर्मः" में कोई संदेह है ? हमारे माननीय मनु भगवान ने आज्ञा को है, "धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥" यह दशों लक्षण सिवा पूर्ण धार्मिक अर्थात् प्रेमी के किस में हो सकते हैं ? सब सुख दुःखों को केवल प्यारे की इच्छा समझने वालों के अतिरिक्त धर्य का दावा कौन कर सकता है ? क्षमा करना किसका काम है ? उसी का न जो समझ ले कि भला इनसे हम क्या बदला लें। यह तो ईश्वर के नाते अपने ही ठहरे दम भी उसी से होगा जो अपने ऊपर कुछ बीते पर ईश्वर की मंगलमयी सृष्टि में हलचल न पड़ने देने का हठी होगा। चोरी का त्याग भी वही करेगा जो निश्चय कर ले कि इस वस्तु से इनको सुख होता है, हमें पहिले हो चुका । शुद्धता भी वही ग्रहण करेगा जिसको ईश्वर और अपने ऐहिक मित्रों से लिपट के मिलने की प्रगाढ़ इच्छा होगी। इंद्रियाँ भी उसी की चलायमान न होंगी जो अपने अलौकिक आनंद के आगे बाह्य सुखों को तुच्छ गिनेगा। बुद्धि प्रेमियों को सी किसमें होगी जो परम तत्व परमात्मा तक को अपना कर सकते हैं । यद्यपि कच्चे लोगों की दृष्टि में वे मूर्ख जचें और वे भी अपने प्रियतमजन्य संबंध के आगे वृद्धि की पर्वा न करें, पर बुद्धि का बो असली तत्व है अपना और पराया हिताहित ठीक २ समझ के, न और को टगने की चेष्टा करना, न स्वयं ठगाना, सो उनमें प्रत्यक्ष ही है कि वे क्षणिक हानि लाभ से विकल न होके अपने ठीक सुखद मार्ग पर चले जाते हैं । विद्या का कहना ही क्या है। श्री कबीर जी ने अनुभव करके कही दिया है 'ढाई अक्षर प्रेम के पढ़ सो पंडित होय । एक बार एक सहृदय ने पूछा कि 'भाई तुम्हारे मत की कौन किताब है ?' इस पर हमारे एक अभिन्न ने कहा 'हमारा मत तो कोई है नहीं, पर किताब की जो पूंछो तो पृथ्वी और खगोल यह दो पन्ने पहिले अच्छी तरह पढ़ लीजिए, फिर कोई बड़ी पोथी बतला देंगे।' यह सुन के पुच्छक भाई बड़ी देर तक स्तब्ध रह के, बड़ी गंभीरता से बोले कि 'हाँ, बेशक तुम्हारी विद्या के ग्रंथ सर्वोत्तम हैं जिनको कोई दूसरा क्या पढ़ेगा, कितना पड़ेगा और कहाँ तक पढ़ेगा ।' बाचक महोदय, इस बात को खूब गौर से दूर तक सोच लीजिए, प्रेमियों की विद्या का हाल खुल जायगा। सत्य का क्या पूछना है। प्रेम मदिरा मत्त महाशयों के मुंह से जो निकलेगा वास्तव में सत्य ही होगा। कोई न समझे तो उसका दोष है। रहा अक्रोध, सो निसको दृष्टि में कोई क्रोध का पात्र ही नहीं है वह स्वयं क्रोध से दूर ही होगा। अब 'ब्राह्मण' के रसिक विचार देखें कि जिन मनु को बेद भी 'तदभेषजं भेषजत या' कहता है उनका धर्म विषयक निश्चय ही 'प्रेमएपपरोधर्मः' पर है या नहीं। इसके सिवा और भी श्रुति स्मृति के सहस्त्रावधि वाक्य हैं जो गुप्त वा प्रकट रूप से इसी बात को पुष्ट करते हैं। पर हम विस्तार भय से न लिख कर केवल अनुमति देते हैं कि देखिए, समलिए और हमसे चाहे और किसी से पूष्ठिये तो आखें खुलें। वं. ३, सं० ३-४ और ६ (१५ मई, जून सन् १८८५६० और १५ अगस्त,हसं० ११