पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१०४

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इस शब्द का उच्चारण कर बैठो, तो तुम तो क्या हो भगवान की भी लघुता हो चुकी है-'बलि पै मांगत ही भये बावन तन करतार'। यदि दैवयोग से प्रत्यक्षतया ऐसा न हुआ तौ भी अपनी आत्मा आपही धिक्कारेगी, लज्जा कहेगी-'कोदेहीत बदेत स्वदग्ध जठरस्यार्थे मनस्वी पुमान' । यदि आप कहें हम मांगेंगे नहीं देंगे अर्थात् मुख से दो दो कहेंगे नहीं किन्तु कानों से सुनेंगे तौ भी पास की पूंजी गँवा बैठने का डर है । उपदेश दीजियेगा तो भी अरुचिकर हुआ तो गालियां खाइयेगा। मनोहर होगा तो यथः प्राप्ति के लालच दूसरे काम के न रहिएगा। इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि (दो) का कहना भी बुरा है, सुनना भी अच्छा नहीं।

कहां तक कहें यह 'दो' सब को अखरते हैं। चाहै जिस शब्द में दो को जोड़ दो उसमें भी एक न एक बुराई ही निकलेगी। दोख (दोष) कैसी बुरी बात है जिसमें सचमुच हो उसके गुणों में बट्टा लगा दे, जिस पर झूठमूठ आरोपित किया जाय उसकी शान्ति भंग कर दे। दोज़ख़ ( नर्क अथवा पेट) कैसा बुरा स्थान है जिससे सभी मतवादी डरते हैं कैसा वाहियात अङ्ग है जिसकी पूर्ति के लिये सभी कर्तव्याकर्त्तव्य करने पड़ते हैं। दाँत कैसा तुच्छ सम्बोधन है जिसे मनुष्य क्या कुत्ते भी नहीं सुनना चाहते। दो पहर कैसी तीक्ष्ण बेला है कि ग्रीष्म क्या तो ग्रीष्म शीत ऋतु में भी सुख से कोई काम नहीं करने देती।