पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( ६३ )


दोहर कैसा बेकाम कपड़ा है कि दाम तो दूने लगें, पर जाड़े में जाड़ा न खो सके, गरमी सह्य न हो सके। हां दोहा एक छन्द है जिसे कवि लोग बहुधा आदर देते हैं, सो भी जब उसमें से दो की शक्ति हनन कर लेते हैं।

इससे यह ध्वनि निकलती है कि जहां दो होंगे वहां उनका भाव भङ्ग ही कर डालना श्रेयस्कर होगा। इसी से ईश्वर ने हमारे शरीर में जो जो अवयव दो दो बनाए हैं उनका रूप गुण कार्य एक कर दिया है यदि कभी इस नियम में छुटाई बड़ाई इत्यादि के कारण कुछ भी त्रुटि हो जाती है तो सारी देह दोष पूर्ण हो जाती है, हाथ, पाँव, आँख, कान इत्यादि यदि सब प्रकार एक हों तो भी सुविधा होती है जहाँ कुछ भी भेद हुआ और दो का भाव बना रहा वहीं बुराई होती है इससे सिद्ध है कि नेचर हमें प्रत्यक्ष प्रमाण से उपदेश दे रहा है कि जहां दो हों वहां दोनों को एक करो। तभी सुख पावोगे। ऋषियों ने भी इसी बात की पुष्टि के लिये अनेक शिक्षा दी है। स्त्री का नाम अर्द्धाङ्गी इसी लिये रक्खा है कि स्त्री और पुरुष परस्पर दो भाव रक्खेंगे तो संसार से सुख का अदर्शन हो जायगा। इनकी रुचि और उनकी और उनके विचार और इनके होने से गृहस्थी का खेल ही मट्टी हो जाता है। 'खसम जो पूजै द्यौहरा भूत पूजनी जोय । एकै घर में दो मता कुशल कहां ते होय ।।' इससे इन दोनों को परस्पर यही समझना चाहिए कि हमारा अंग इसके विना आधा है अर्थात् इसकी अनुमति विना हमें कोई काम