पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/११९

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दनभर पति से खांव २ करती है। कहीं पावें तो उस ऋषि की दाढ़ी जला दें, जिसने यह व्रत निकाला है।

पित्रपक्ष में आर्यसमाजी कुढ़ते २ सूख जाते होंगे। 'हाय हम सभा करते, लेक्चर देते मरते हैं, पर पोप जी देशभर का धन खाए जाते हैं !'

कार्तिक में, खासकर दिवाली में, आलसी लोगों का अरिष्ट आता है। यहां मुंह में घुसे हुए मुच्छों के बाल हटाना मुशकिल है, वहां यह उठाव वह धर, यहां पुताव, वहां लिपाव, कहां की आफत !

अगहन पूस तो मनहूस हुई हैं, विशेषतः धोबियों के कुदिन आते हैं। शायद ही कभी कोई एक आध डुपट्टा उपट्टा धुलवाता हो।

माघ का महीना कनौजियों का काल है। पानी छूते हाथ पांव गलते हैं। पर हमें बिना स्नान किये फलहार खाना भी धर्मनाशक है। जलसूर के माने चाहे जो हों, पर हमारी समझ में यही आता है कि सूर अर्थात् अंधे बनके, आखें मूंदके लोटा भर पानी पीठ पर डाल लेनेवाला जलसूर है !

फागुन में होली बड़ा भारी पर्व है । सब को सुख देती है। पर दुःख भी कइयों को देती है। एक माड़वारी, दिनभर खाना है न पीना, डफ पीटते २ हाथ रह जाता है। हौकते २ गला फटता है। कहीं अकेले दुकेले शैतान-चौकड़ी (लड़कों के समूह) में निकल गए तो कोई पाग उतारै छै, कोई धाप मारै