पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१२४

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तांबे के पत्र पर लिखा लीजिए। तीसरे गोरक्षा के लिए तन, मन, धन से उद्योग करनेवाले । अन्न, धन, दूध, पूत सब कुछ न पावें, तथा शरीर-मोक्ष का मज़ा. न उठावें तो वेद, शास्त्र, पुराण और हम सबको झूठा समझ लेना । चौथे परमेश्वर के प्रेमानन्द में मस्त रहने वाले तथा भारत-भूमि को सच्चे चित्त से प्यार करनेवाले एक ऐसा अलौकिक अपरिमित एवं अकथ आनन्द लूटेंगे कि उसके आगे भुक्ति और मुक्ति तृण से भी तुच्छ हैं। हमारे वचन को 'ब्रह्मवाक्य सदा सत्यम्' न समझेगा वह सब नास्तिकों का गुरू है।


होली है

तुम्हारा सिर है ! यहां दरिद्र की आग के मारे होला (अथवा होरा भुना हुवा हरा चना) हो रहे हैं इन्हें होली है, हे !

अरे कैसे मनहूस हो ? बरस २ का तिवहार है, उसमें भी वही रोनी सूरत ! एक बार तो प्रसन्न हो कर बोलो, होरी है !

अरे भाई हम पुराने समय के बंगाली भी तो नहीं हैं कि तुम ऐसे मित्रों की जबरदस्ती से होरी (हरि) बोलके शांत हो जाते। हम तो बीसवीं शताब्दी के अभागे हिन्दुस्तानी हैं, जिन्हें कृषि, वाणिज्य शिल्प सेवादि किसी में भी कुछ तंत नहीं है। खेतों की उपज अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जंगलों का कट जाना रेलों और नहरों की वृद्धि इत्यादि ने मट्टी करदी है। जो कुछ