पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१२६)


है; वह किसी का कोई नहीं है और सबका सब कोई है । दृढ़ विश्वास और सरल स्नेह के साथ उसे जो कोई जिस रीति से भजता है वह उसका उसी रीति से कल्याण शांति दान अथच परित्राण करता है। इस बात के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिसका जी चाहे वह चाहे जिस रीति से भजन करके देख ले कि ईश्वर उसे उसी रीति में आनन्द देता है कि नहीं।

पर मतविषयक शास्त्रार्थ के लती स्वय भजन नहीं करते बरंच दूसरे की भजन प्रणाली में विक्षेप डालने का उद्योग करते हैं । बहुत वर्षों से अथवा बहुत पीढ़ियों से जो विश्वास एक के जी पर जमा हुआ है उसे उखाड़ कर उसके ठौर पर अपना विचार रक्खा चाहते हैं भला इससे बढ़के हरि-विमुखता क्या होगी ? और ऐसे विमुखों को भी नर्क न हो तो ईश्वर के घर में अंधेर है। संसार में जितनी पुस्तकें धर्मग्रन्थ कहलाती हैं सब के लिखने वाले भगवान के भक्त एवं जगत के हितैषी मनुष्य थे। अपने अपने देश काल अथच निज दशा के अनुसार सभों ने अच्छी ही अच्छी बातें लिखी हैं। रहा यह कि मनुष्य की बुद्धि सब बातों में और सब काल में पूर्णतया एक रूप नहीं रहती, इससे संभव है कि प्रत्येक मत के प्रवर्तक से कुछ बुराई हो गई हो या उसके लेख में कहीं भ्रम या दोष ही रह गया हो। पर, हमें अधिकार नहीं है कि उनके काम या वचन पर आक्षेप करें। यदि आप यह न भी मानें कि हमारे दोषों