पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१२८)


का व्रत (रोजा) निर्बल और कोमल प्रकृति वालों से कब निभ सकता है ? फिर यदि ईश्वर एकही लाठी से सबको हाँके तो उसकी जगदीशता का क्या हाल हो ? कभी किसी वैद्य को हमने नहीं देखा कि एकही औषधि सब प्रकार के रोगियों को दे देता हो।

जब जिसके लिये जो बात ईश्वर योग्य समझता है तब तिसकी तौन ही बतला देता है। उससे बढ़ के बुद्धिमान कोई नहीं है। वह अपनी प्रजा का हिताहित आप जानता है। बेद, बाइबिल, कुरान बना के मर नहीं गया, न पागल हो गया है कि अब पुस्तक रचना न कर सके। यदि एक ही मत से सबका उद्धार समझता हो तो अन्य मतावलंबियों के ग्रन्थ, मनुष्य और सारे चिन्ह नाश ही कर देने में उसे किसका डर है ? इन सब बातों को देख-सुन और सोच के भी मतवादीगण सबको अपनी राह चलाने के लिये हाव हाव करते हैं, फिर हम क्यों न कहें कि वे परमात्मा से अधिक बुद्धिमान बन के उसकी चलती गाड़ी में रोड़ा अटकाते हैं । भला सबसे बढ़के हरि-निन्दा और नर्क का सामान क्या होगा ? जैसे हमारी प्रतिमा न पूजने वालों को कभी एक फूल उठा देती है, न निन्दकों को एक थप्पड़ मार देती है, वैसेही आपके निराकार भी न किसी उपासक को प्यार की बात कहते हैं, न गाली देने वाले का शिर दुखाते हैं । फिर हम आपको अथवा आप हमारी पूजा-पद्धति पर आक्षेप करें तो सिवाय परस्पर बिरोध उपजाने के और क्या करते हैं ?