पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१४४

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"सुखी रहौ शुभ मति गहौ जीवहु कोटि बरीष ।
धन बल की बढ़ती रहै ब्राह्मण देत अशीष ॥"

'ब्राह्मण' की अन्तिम विदा।

"दरो दीवार पै हसरत से नज़र करते हैं ।
. खुश रहो अहले वतन हमतो सफर करते हैं ।।"

परमगूढ़ गुण रूप स्वभावादि सम्पन्न प्रेमदेव के पद पद्म को बारम्बार नमस्कार है कि अनेकानेक विघ्नों की उपस्थिति में भी उनकी दया से ब्राह्मण ने सात वर्ष तक संसार की सैर करली, नहीं तो कानपुर तो वह नगर है जहाँ बड़े बड़े लोग बड़ों बड़ों की सहायता के आछत भी कभी कोई हिन्दी का पत्र छः महीने भी नहीं चला सके। और न आसरा है कि कभी कोई एतद्विषयक कृतकार्यत्व लाभ कर सकेगा, क्योंकि यहाँ के हिन्दू समुदाय में अपनी भाषा और अपने भाव का ममत्व विधाता ने रक्खा ही नहीं। फिर हम क्योंकर मानलें कि यहाँ हिन्दी और उसके भक्त जन कभी सहारा पावैगे ? ऐसे स्थान पर जन्म लेके और खुशामदी तथा हिकमती न बनके ब्राह्मण देवता इतने दिन तक बने रहे सो भी एक स्वेच्छाचारी के द्वारा संचालित होके इस प्रेमदेव की आश्चर्य लीला के सिवा क्या कहा जा सकता है।

यह पत्र अच्छा था अथवा बुरा, अपने कर्तव्य पालन में योग्य था वा अयोग्य, यह कहने का हमें कोई अधिकार नहीं है।