पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६७

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"जियत हंसी जो जगत में, मरे मुक्ति केहि काज" क्या कोई सकल सद्गुणालंकृत व्यक्ति समस्त सुख-सामग्री- संयुक्त, सुवर्ण के मदिर में भी एकाकी रहके सुख से कुछ काल रह सकता है ? ऐसी २ बातों को देख सुन, सोच समझके भी जो लोग किसी डर या लालच या दबाव में फँसके पंच के. विरुद्ध हो बैठते हैं, अथवा द्वेषियों का पक्ष समर्थन करने लगते हैं वे हम नहीं जानते कि परमेश्वर, (प्रकृति) दीन, ईमान, धर्म, कर्म, विद्या, बुद्धि, सहृदयता और मनुष्यत्व को क्या मुंह दिखाते होंगे ? हमने माना कि थोड़े से हठी, दुराग्रही लोगों के द्वारा उन्हें मन का धन, कोरा पद, झूठी प्रशंसा, मिलनी सम्भव है, पर इसके साथ अपनी अंतरात्मा (कानशेन्स) के गले पर छूरी चलाने का पाप तथा पंचों का श्राप भी ऐसा लग जाता है कि जीवन को नर्कमय कर देता है, और एक न एक दिन अवश्व भंडा फूट के सारी शेखी मिटा देता है। यदि ईश्वर की किसी हिकमत से जीते जी ऐसा न भी हो तो मरने के पीछे आत्मा की दुर्गति, दुर्नाम, अपकीर्ति एवं संतान के लिए लज्जा तो कहीं गई ही नहीं। क्योंकि पंच का बैरी परमेश्वर का बैरी है, और परमेश्वर के वैरी के लिए कहीं शरण नहीं है-

राखि को सकै रामकर द्रोही।

पाठक ! तुम्हें परमेश्वर की दया और बड़ों बूढ़ों के उद्योग से विद्या का अभाव नहीं है। अतः आंखें पसार के देखो कि तुम्हारे जीवनकाल में पढ़ी लिखी सृष्टिवाले पंच किस