महंगी और टिकस के मारे सगरी वस्तु अमोली है।
कौन भांति त्योहार मनैऐ कैसे कहिए होली है॥१३॥
भूखो मरत किसान तहूं पर कर हित उपट न थोरी है।
गारी देत दुष्ट चपरासी तकति बिचारी छोरी है॥
बात कहें बिन लात लगति है गरदन जाति मरोरी है।
केहि बिधि दुखिया दिल समझावै कैसे जानै होरी है॥१४॥
बिन रुजगार बनिक जन रोवैं गांठ सबन की पोली है।
लाग्यो रहत दिवाली को डर जबते कोठी खोली है॥
अन्धा धुन्ध टिक्कस चन्दा ने सारी सम्पति ढोली है।
ताहू पै तशखीस-करैया द्वार मचावत होली है॥१५॥
दीन प्रजहि घृत दूध अन्न की आस रही इक ओरी है।
साग पात संग नोन तेल हू की तरसनि नहिं थोरी है॥
पर्यो झोपड़ी मांहि छुधित नित रोवत छोरा छोरी है॥
ज्यों त्यों करि काटत दुख जीवन का सूझति तेहि होरी है॥१६॥
ह्यां की रीति नीति दुख सुख सों मति गति जिनकी पोली है।
हम पर मन मानी प्रभुता की राह आय उन खोली है॥
प्रजा पुंज ममता बिन तिन हिन जो चेती कर सोली है।
बरबस बिबस हिन्द बासिन की कहा दिवाली होली है॥१७॥
राजकुंअर दरसन आश्रित की काहूं इज्ज़त बोरी है।
निर अपराधिन को काहू ने कैद कियों बर जोरी है॥
काहू ने मंदिर ढहवायो हठ सों मूरति तोरी है।
यह गति देखि कौन सहृदय के जिय में जरत न होरी है॥१८॥
पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१९१
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