पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२२५

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( २१४ )
पुजत रहे सब पितर पुरोहित गंगा तुलसी सालिकराम ॥
पै अब सुख सुचाल सरधा दलि कलि महिमा पूरति सब ठाम ।
हमते करहु न आस कहन की परनानी जी तृप्यन्ताम ॥
( २५ )
जानें हम न रहे तुम कैसे किए कौन भल अनभल काम ।
मरत जियत तव दशा रहो किमि दुख सुख कहा दिखाओ राम ।।
फिर केहि विधि सरधा सनेह जुत अंजलि देहिं लेहिं का नाम ।
इतर जन्म के बन्धुवर्ग हां लोक रीति बस तृप्यन्ताम ।।
( २६ )
सुर ऋषि पितरन हूँ कहं तरपन मन न रह्यौ थिर पाव छदाम ।
कबहूं परधन हरन विचार्यो कबहूं तकी पराई बाम ॥
तुह कहं तरपहिं केहि सरधा सों जिन कर जानहिं नाम न काम ।
भूले बिसरे नात गोत गन बचन मात्र सों तृप्यन्ताम ॥
( २७ )
देश जाति उद्धार जतन महं जो तव कुटुम गयो सुरधाम ।
तौ सुपवित्र रामनामी सों छन्यो गंग जल लेहु ललाम ॥
और जु निज दुर विसन विवस है पितृ वंश कर दियो तमाम ।
तौ यह मलिन अंगौछा निचुरत लुप्त पिंड गन तृप्यन्ताम ।।
( २८ )
हा दुरदैव आज निज पापन नहिं पेटहु की तृपति हमार ।
किन सो कहा लाय किमि पालैं छोटे सिसु अरु कृशतनु बाम ।।
वे दिन कबहूं फेरि फिरेंगे ? कहं धौं गये हाय रे राम ।