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प्रतापनारायण का देश-प्रेम तथा उनके सार्वजनिक भाव

प्रतापनारायण के समय में राष्ट्रीयता की एक देशव्यापी लहर उठी थी। बात यह थी कि पश्चिमीय शिक्षा के प्रचार से पढ़े लिखे लोगों की काफी बड़ी संख्या तैयार हो रही थी। इस शिक्षा-वृद्धि का फल यह हुआ था कि शिक्षित लोगों के द्वारा जनता में जातीयता और स्वाभिमान के प्रबल भाव उठने लगे थे। सन् १८५७ के बलवे के पीछे यों भी भारतीय संस्कृति और विदेशी संस्कृति में पारस्परिक आघात-प्रतिघात होना शुरू हो गया था।

इस राष्ट्रीयता के आवेग में और भी कई आंदोलन उत्तेजित हो गये थे। उत्तरी भारत भर में हिंदी-भाषा और देवनागरी-लिपि के प्रचार का प्रयत्न हो रहा था। इसके सिवाय सामाजिक सुधार की ओर भी सुशिक्षित लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा था। एवं सर्वत्र सार्वजनिक भाव जोर पकड़ रहे थे।

पंडित प्रतापनारायण कानपुर के उन थोड़े से आदमियों में थे जिन्होंने शहर की पवलिक में उपर्युक्त भाव दृढ़रूप से पैदा करने की कोशिश की और जिन्होंने देश-हित के कामों में पूरा सहयोग दिया। उनका जीवन वास्तव में सार्वजनिक. जीवन के हेतु ही समर्पित था।