पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/३१

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हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान ॥”

इस हिंदी-प्रचार की धुन में जब कभी किसी उर्दू के पक्ष- पाती समाचार-पत्र के संपादक से उनका वाग्युद्ध छिड़ जाता था, तो लगातार कई हफ़्तों तक वे अपने पत्र में उर्दू के पीछे पड़ जाते थे। 'उर्दू बीबी की पूँजी' इस विषय पर उनका बड़ा चटपटा लेख है। उसमें उन्होंने मनोलपने की तथा व्यङ्ग की हद कर दी है। यह अवतरण देखिए :-

“उर्दू की वास्तविक पूँजी यदि विचार के देखिये तो "आशिक़', 'माशूक़', 'बाग़', 'बुलबुल', 'सैयाद', 'शराब', 'साक़ी', इतनी ही बातें हैं जिन्हें उलट-फेर के वर्णन किया करो, आप बड़े अच्छे उर्दू दाँ हो जायँगे। हमारे एक मित्र का वाक्य कितना सच्चा है कि और सब विद्या है, यह अविद्या है। जन्म भर पढ़ा कीजिये तेली के बैल की तरह एक ही जगह घूमते रहोगे।"

इसमें अत्युक्ति बहुत ज्यादा है। पर जिस परिहास की तरंग में यह लिखा गया है उसके यह सर्वथा उपयुक्त है। संभव है कि किसी उर्दू के हिमायती की दलीलों से चिढ़ कर यह लिखा हो। क्योंकि वे स्वयं उर्दू दाँ थे और फारसी में भी शायद उनका काफ़ी प्रवेश था। उर्दू में उन्होंने बड़ी रोचक शेरें भी लिखी हैं । अतएव, उर्दू को 'सब भाषाओं का करकट' तक कह डालने से उनकी उर्दू के प्रति कोई वास्तविक घृणा न रही होगी।


प्रतापनारायण की साहित्यिक मंडली

पंडित प्रतापनारायण की साधारण जीवन घटनाओं तथा