पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/४६

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शक्ति का पता तो उनकी ब्रजभाषा की कविताओं से ही लगता है। खड़ी-बोली तथा ब्रजभाषा के बीच में जो आजकल खींचा-तानी हो रही है उसके विषय में उन्होंने स्वतंत्र विचार प्रकट किये हैं। खड़ी बोली को उच्चभाव-युक्त कविता के लिए तथा भिन्न भिन्न छंदों के लिए वे सर्वथा अनुपयुक्त मानते थे:---

"सिवाय फ़ारसी छंद और दो-तीन चाल की लावनियों के और कोई छंद उसमें बनाना भी ऐसा है जैसे किसी कोम-लांगी सुंदरी को कोट, बूट पहिनाना।"

वास्तव में उनका वह निश्चित सिद्धांत था कि कविता की भाषा में और किसी समय की साधारण बोलचाल की भाषा में काफी अंतर होना चाहिए क्योंकि 'कविता के कर्ता और रसिक होना सब का काम नहीं है। यदि सबको समझाना मात्र प्रयोजन है तो सीधा सीधा गद्य लिखिये।'

कवि का काम अपने हृदय में उद्भूत कोमल भावों को प्रकट करना है और अपनी आत्मा को आनंदानुभव कराना है। जिस प्रकार उसकी सी भावुकता सब में नहीं होती उसी प्रकार उसका सा मनोहारी शाब्दिक चमत्कार किसी दूसरे की भाषा में कैसे मिल सकता है। ठीक इसी तर्क के आधार पर कवि को खड़ी बोली का प्रयोग करने पर बाधित करना मिश्र जी के हिसाब से अनुचित है। तभी वे कहते हैं:-

"जो कविता नहीं जानते वे अपनी बोली चाहे खड़ी रक्खें चाहे कुदावें, पर कवि लोग अपनी प्यार की हुई बोली