पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६६

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लिए भूषण है, क्योंकि उनकी परम शोभा है, और रसिकों को वशीभूत करने के हेतु सुन्दरियों का शस्त्र है ए। यह बात सहृदयता से सोचो तो चित्त में अगणित भाव उत्पन्न होंगे, देखो तो भी अनेक स्वादु मिलेंगे। पर जो कोई पूछे कि वह क्या है तो भ्रू चातुर्य अर्थात भौंहों में भरी हुई चतुरता से अधिक कुछ नाम नहीं ले सकते। यदि कोई उस भ्रू चातुर्य का लक्षण पूछे तो बस, चुप। हाय २ कवियों ने तो भौंह की सूरतमात्र देखके यही दिया है, पर रसिकों के जी से कोई पूछे ! प्रेमपात्र की भौंह का तनक हिल जाना मनके ऊपर सचमुच तलवार ही का काम कर जाता है। फिर भ्रकुटी-कृपाण क्यों न कहें। सीधी चितवन बान ही सी कलेजे में चुभ जाती है। पर इसी भ्रू -चाप की सहाय से श्री जयदेवस्वामी का यह पवित्र वचन-

'शशि' मुखि ! तव भाति भंगुर भ्रू
युवजन मोह कराल कालसर्पी,

-उनकी आंखों से देखना चाहिए, जिनके प्रेमाधार कोप के समय भौंह सकोड़ लेते हैं। आहा हा, कई दिन दर्शन न मिलने से जिसका मन उत्कण्ठित हो रहा हो उसे वह हृदया- भिराम की प्रेमभरी चितवन के साथ भावभरी भृकुटी ईद के चांद से अनंत ही गुणी सुखदायिनी होती है। कहां तक कहिए, भृकुटी का वर्णन एक जीभ से तो होना ही असंभव है। एक फ़ारसी का कवि यह वाक्य कहके कितनी रसज्ञता का अधिकारी है कि रसिकगण को गूंगे का गुड़ हो रहा है-भृकुटी-रूपी छंद-