पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/६७

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पंक्ति के सहस्रों सूक्ष्म अर्थ हैं, पर उन अर्थों को बिना बाल की खाल निकालनेवालों अर्थात् महा तीव्र बुद्धिवालों के कोई समझ नहीं सकता।*

जब यह हाल है कि महा तीव्र-बुद्धि केवल समझ सकते हैं तो कहने की सामर्थ्य तो है किसे? संस्कृत, भाषा, फारसी और उर्दू में काव्य का ऐसा कोई ग्रन्थ ही नहीं है जिसमें इन लोमराशि का वर्णन न हो।

अतः हम यह अध्याय अधिक न बढ़ाके इतना और निवे-दन करेंगे कि हमारे देश-भाई विदेशियों की वैभवोन्मादरूपी वायु से संचालित भ्रकुटी-लता ही को चारो फलदायिनी समझके न निहारा करें, कुछ अपना हिताहित आप भी विचारें। यद्यपि हमारा धन, बल, भाषा इत्यादि सभी निर्जीव से हो रहे हैं तो भी यदि हम पराई भौहें ताकने की लत छोड़ दें, आपस में बात २ पर भौंहैं चढ़ाना छोड़ दें, दृढ़ता से कटिबद्ध होके, वीरता से भौंहें तानके देश-हित में सन्नद्ध होजायं, अपने देश की बनी वस्तुओं का, अपने धर्म का, अपनी भाषा का, अपने पूर्व-पुरुषों के रुज़गार और व्यवहार का आदर करें तो परमेश्वर अवश्य हमारे उद्योग का फल दे। उसके सहज भृकुटी-विलास में अनंत कोटि ब्रह्मांड की गति बदल जाती है, भारत की दुर्गति बदल जाना कौन बड़ी बात है।


*हज़ारां मानिए बारीक बाशद बैते अब्रूरा। बग़ैरज़ मूशिगाफां कस न फ़हमद मानिए ऊरा।