पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/८५

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शोभा और यावत् भोज्य पदार्थों का स्वादु इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक, (जुल्फ़) भ्रू (भौं) तथा बरुणी आदि की छबि लिखने में बहुत २ रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हीं की शोभा से सब की शोभा है । जब दांतों के बिना पुपला सा मुंह निकल आता है, और चिबुक (ठोढ़ी) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मट्टी में मिल जाती है। नैन-वाण की तीक्षणता, भ्र-चाप की खिंचावट और अलक-पन्नगी का विष कुछ भी नहीं रहता।

कवियों ने इसकी उपमा हीरा, मोती, माणिक से दी है,. वह बहुत ठीक है, बरंच यह अवयव कथित वस्तुओं से भी अधिक मोल के हैं। यह वह अंग है जिसमें पाकशास्त्र के छहों रस एवं काव्यशास्त्र के नवों रस का आधार है खाने का मजा इन्हीं से है। इस बात का अनुभव यदि आपको न हो तो किसी बुड्ढ़े से पूछ देखिए, सिवाय सतुआ चाटने के और रोटी को दूध में तथा दाल में भिगोके गले के नीचे उतार देने के दुनियां- भर की चीजों के लिए तरस ही के रह जाता होगा। रहे कविता के नौ रस, सो उनका दिग्दर्शनमात्र हमसे सुन लीजिए :-

शृङ्गार का तो कहना ही क्या है ! ऐसा कवि शायद कोई. ही हो जिसने सुन्दरियों की दन्तावली तथा उनके गोरे गुदगुदे गोल कपोल पर रद-छद (दन्त-दारा) के वर्णन में अपने क़लम की कारीगरी न दिखाई हो! आहा हा ! मिस्सी तथा पान-रङ्ग रंगे अथवा योंही चमकदार चटकीले दांत जिस समय बातें