पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/९२

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सब सामर्थ्य होने पर भी पुराणों के अनुसार सदा दनुज-कुल से क्यों भागना पड़ा ? आज भी नये मतवालों के मारे अस्तित्व तक में सन्देह है। ईसाइयों की नित्य गाली खाते हैं। इसका क्या कारण है ? पंचपांडव समान वीर-शिरोमणि तथा भगवान कृष्णचन्द्र सरीखे रक्षक होते हुए द्र पदतनया को केशाकर्षण एवं वनवास आदि का दुःख सहना पड़ा, इसका क्या हेतु ? देश-हितैषिता ऐसे उत्तम गुण का भारतवासी मात्र नाम तक नहीं लेते, यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल, निर्धन, बदनाम ! यह क्यों ? दम्पति, अर्थात् स्त्री-पुरुष, वेद, शास्त्र, पुराण, बायबिल, कुरान सब में लिखा है कि एक हैं, परस्पर सुखकारक हैं, पर हम ऋषिवंशीब कान्यकुब्जों में एक दूसरे के बैरी होते हैं ! ऐसा क्यों है ? दूध दही कैसे उत्तम, स्वादिष्ट, बलकारक पदार्थ हैं कि अमृत कहने योग्य, पर वर्तमान राजा उसकी जड़ ही काटे डालते हैं ! हम प्रजागण कुछ उपाय ही नहीं करते, इसका क्या हेतु है ? इन सब बातों का यही कारण है कि इन सब नामों के आदि में यह दुरूह 'दकार' है!

हमारे श्रेष्ठ सहयोगी "हिन्दी-प्रदीप” सिद्ध कर चुके हैं कि 'लकार' बड़ी ललित और रसीली होती है। हमारी समझ में उसी का साथ पाने से दीनदयाल, दिलासा, दिलदार, दाल- भात इत्यादि दस पांच शब्द कुछ पसंदीदा हो गये हैं, नहीं तो देवताओं में दुर्गाजी, ऋषियों में दुर्वासा, राजाओं में दुर्योधन