पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/९४

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रीति पर सताना जानते हैं, बड़े प्रसन्न हों तो तन, मन, धन से सहाय करना जानते हैं, जहां और कोई युक्ति न चले वहां निरी खुशामद करना जानते हैं, पर अपने रूप में किसी तरह का बट्टा न लगने देना और रसाइन के साथ धीरे धीरे हंसा खिलाके अपना मतलब गांठना, जो नीति का जीव है, उसे बिलकुल नहीं जानते ।

इतिहास लेके सब बादशाहों का चरित्र देख डालिए। ऐसा कोई न मिलेगा जिसकी भली या बुरी मनोगति बहुत दिन तक छिपी रह सकी हो । यही कारण है कि उनकी वर्णमाला में टवर्ग हई नहीं। किसी फारसी से टट्टी कहलाइए तो मुंह बीस कोने का बनावेगा, पर कहेगा तत्ती। टट्टी की ओट में शिकार करना जानते ही नहीं, उन विचारों के यहां 'टट्टा' का अक्षर कहां से आवे । इधर हमारे गौरांगदेव को देखिए । शिरपर हैट, तन पर कोट, पावों में प्येंट, और बूट, ईश्वर का नाम आल्मा- इटी, (सर्वशक्तिमान) गुरू का नाम ट्यू टर, मास्टर (स्वामी को भी कहते हैं) या टीचर, जिससे प्रीप्ति हो उसकी पदवी मिस्ट्रस, रोजगार का नाम ट्रेड, नफा का नाम बेनीफिट, कवि का नाम पोयट, मूर्ख का नाम स्टुपिड, खाने में टेबिल, कमाने में टेक्स। कहां तक इस टिटिल-टेटिल (बकवाद) को बढ़ावें, कोई बड़ी डिक्शनरी (शब्द-कोष) को लेके ऐसे शब्द ढूंढ़िए, जिनमें 'टकार' न हो तो बहुत ही कम पाइएगा ! उनके यहां 'ट' इतना प्रविष्ट है कि तोता कहाइए तो टोटा कहेंगे । इसी