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प्रतिज्ञा

कमलाप्रसाद की नींद मुश्किल से टूटेगी; लेकिन वहाँ नींद कहाँ? आहट पाते ही कमला ने द्वार खोल दिया और पूर्णा को देखकर कुतूहल से बोला--क्या है पूर्णा, आओ बैठो।

पूर्णा ने सुमित्रा की बीमारी की सूचना न दी; क्योंकि झूठ बोलने की उसकी आदत न थी। एक क्षण तक वह अनिश्चित दशा में खड़ी रही। कोई बात न सूझती थी। अन्त में बोली--क्या आप सुमित्रा से रूठे हैं? वह बेचारी मनाने आई थीं, जिस पर भी आप न गये।

कमला ने विस्मित होकर कहा--मनाने आई थीं? सुमित्रा! झूठी बात। मुझे कोई मनाने नहीं आया था। मनाने ही क्यों लगी। जिससे प्रेम होता है, उसे मनाया जाता है। मैं तो मर भी जाऊँ, तो किसी को रञ्ज न हो। हाँ, माँ-बाप रो लेंगे। सुमित्रा मुझे क्यों मनाने लगीं। क्या तुम से कहती थीं?

पूर्णा को भी आश्चर्य हुआ। सुमित्रा कहाँ आई थी और क्यों लौट गई? बोली--मैंने अभी उन्हें यहाँ आते और इधर से जाते देखा है। मैनें समझा, शायद आपके पास आई हो। इस तरह कब तक रूठे रहियेगा? बेचारी रात-दिन रोती रहती हैं।

कमला ने मानो यह बात नहीं सुनी। समीप आकर बोले---यहाँ कब तक खड़ी रहोगी। अन्दर आओ, तुमसे कुछ कहना है।

यह कहते-कहते उसने पूर्णा की कलाई पकड़कर अन्दर खींच लिया; और द्वार की सिटकनी लगा दी। पूर्णा का कलेजा धक-धक करने लगा। उस आवेश से भरे हुए, कठोर, उग्र स्पर्श ने मानो सर्प

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