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प्रतिज्ञा

या लज्जा की बात है? प्रेम ईश्वरीय प्रेरणा है--ईश्वरीय सन्देश है। प्रेम के संसार में आदमी की बनाई सामाजिक व्यवस्थाओं का कोई मूल्य नहीं। विवाह समाज के सङ्गठन की केवल आयोजना है। जाँत-पाँत केवल भिन्न-भिन्न काम करनेवाले प्राणियों का समूह है। काल के कुचक्र ने तुम्हें एक ऐसी अवस्था में डाल दिया है, जिसमें प्रेम-सुख की कल्पना करना ही पाप समझा जाता है; लेकिन सोचो तो समाज का यह कितना बड़ा अन्याय है। क्या ईश्वर ने तुम्हें इसलिए बनाया है कि दो-तीन साल प्रेम का सुख भोगने के बाद आजीवन वैधव्य की कठोर यातना सहती रहो। कभी नहीं; ईश्वर इतना अन्यायी, इतना क्रूर नहीं हो सकता। वसन्तकुमारजी मेरे परम मित्र थे। आज भी उनकी याद आती है, तो आँखों में आँसू भर आते हैं। इस समय भी मैं उन्हें अपने सामने खड़ा देखता हूँ तुमसे उन्हें बहुत प्रेम था। तुम्हारे सिर में ज़रा भी पीड़ा होती थी, तो बेचारे विकल हो जाते थे। वह तुम्हें सुख से मढ़ देना चाहते थे, चाहते थे कि तुम्हें हवा का झोंका भी न लगे। उन्होंने अपना जीवन ही तुम्हारे लिए अर्पण कर

दिया था। रोओ मत पूर्णा, तुम्हें जरा उदास देखकर उनका कलेजा फट जाता था। तुम्हें रोते देखकर उनकी आत्मा को कितना दुःख होगा फिर यह आज कोई नई बात नहीं। इधर महीनों से तुम्हें रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है और निर्दयी समाज चाहता है कि तुम जीवन-पर्यन्त यों ही रोती रहो, तुम्हारे मुख पर हास्य की एक रेखा भी न दिखाई दे। नहीं तो अनर्थ हो जायया; तुम दुष्टा हो जाओगी। उस आत्मा को तुम्हारी यह व्यर्थ की साधना देखकर कितना दु:ख होता होगा, इसकी

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