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प्रतिज्ञा

क्षण के लिए पहन लो ज़रा मैं देखना चाहता हूँ कि इस रड़्ग की साड़ी तुम्हें कितनी खिलती है। न मानोगी तो ज़बरदस्ती पहना दूँगा!

पूर्णा ने साड़ी को हाथ में लेकर उसी की ओर ताकते हुए कहा---कभी पहन लूँगी, इतनी जल्दी क्या है। फिर यहाँ मैं कैसे पहनूँगी!

कमला--मैं हट जाता हूँ।

कमरे के एक तरफ़ एक छोटी-सी कोठरी थी, उसी में कमलाप्रसाद कभी-कभी बैठकर पढ़ता था। उसके द्वार पर छींट का एक परदा पड़ा हुआ था। कमलाप्रसाद परदा उठाकर उस कोठरी में चला गया। पर एकान्त हो जाने पर भी पूर्णा साड़ी न पहन सकी! इच्छा पहनने की थी; पर सङ्कोच यह था कि कमलाप्रसाद अपने दिल में न जाने क्या आशय समझ बैठे।

कमलाप्रसाद ने परदे की आड़ से कहा--पहन चुकी? अब बाहर निकलूँ। पूर्णा ने मुस्कराकर कहा--हाँ, पहन चुकी; निकलो।

कमला ने परदा उठाकर झाँका। पूर्णा हँस पड़ी। कमला ने फिर परदा खींच लिया और उसकी आड़ से बोला--अब की अगर तुमने न पहना पूर्णा! तो मैं आकर ज़बरदस्ती पहना दूँगा।

पूर्णा ने साड़ी पहनी तो नहीं, हो उसका अञ्चल खोलकर सिर पर रख लिया। सामने ही आइना था, उसपर उसने निगाह डाली! अपनी रूप-छटा पर वह आप ही मोहित हो गई। एक क्षण के लिए उसके मन में ग्लानि का भाव जागरित हो उठा। उसके मर्मस्थल में कहीं से आवाज़ आई--पूर्णा, होस में आ; किधर जा रही है? वह मार्ग तेरे लिए बन्द है। तू उस पर कदम नहीं रख सकती। वह

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