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प्रतिज्ञा

साड़ी को अलग कर देना चाहती थी कि सहसा कमला परदे से निकल आया; और बोला--आखिर तुमने नहीं पहनी न? मेरी इतनी ज़रा-सी बात भी तुम न मान सकीं।

पूर्णा---पहने हुए तो हूँ। अब कैसे पहनूँ? कौन अच्छी लगती है। मेरी देह पर आकर साड़ी की मिट्टी भी खराब हो गई।

कमला ने अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा--ज़रा आइने में तो देख लो!

पूर्णा ने दबी हुई निगाह आइने पर डालकर कहा--देख लिया! ज़रा भी अच्छी नहीं लगती।

कमला--दीपक की ज्योति मात हो गई! वाह रे ईश्वर! तुम ऐसी आलोक मय छवि की रचना कर सकते हो! तुम्हें धन्य है!!

पूर्णा--मैं उतारकर फेंक दूँगी।

कमला--ईश्वर, अब मेरा बेड़ा कैसे पार लगेगा?

पूर्णा--मुझे डुबाकर। यह कहते-कहते पूर्णा की मुख-ज्योति मलिन पड़ गई!

पूर्णा ने साड़ी उतार कर अलगनी पर रख दी।

कमला ने पूछा--यहाँ क्यों रखती हो?

पूर्णा बोली--और कहाँ ले जाऊँ। आपकी इतनी खातिर कर दी। ईश्वर न जाने इसका क्या दण्ड देंगे।

कमला--ईश्वर दण्ड नहीं देंगे पूर्णा, यह उन्हीं की आज्ञा है। तुम उनकी चिन्ता न करो। खड़ी क्यो हो? अभी तो बहुत रात है, क्या अभी से भाग जाने का इरादा है। पूर्णा ने द्वार के पास जाकर

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