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प्रतिज्ञा

साज़ ठिकाने से रखना उन्हें आता ही न था। ऐनक स्नान के कमरे के ताक़ पर रख दिया, तो उसकी याद उस वक्त आती। जब कॉलेज में उसकी ज़रूरत पड़ती। खाने-पीने, सोने-जागने का कोई नियम न था। कभी कोई अच्छी पुस्तक मिल गई, तो सारी रात जागते रहे। कभी सरेशाम से सो रहे, तो खाने-पीने की सुध भी न रही। आय-व्यय की भी व्यवस्था न थी। जब तक हाथ में रुपए रहते, बेदरेग खर्च किये जाते, बिना ज़रूरत की चीजें आया करतीं। रुपए ख़र्च हो जाने पर, लकड़ी और तेल में किफायत करनी पड़ती थी। तब वह अपनी वृद्धा माता पर

झुँझलाते; पर माता का इसमें कोई दोष न था। उनका बस चलता तो अब तक दाननाथ चार पैसे के आदमी हो गये होते। वह पैसे का काम घेले में निकालना चाहती थीं। कोई महरी, कोई कहार, उनके यहाँ टिकने न पाता था। उन्हें अपने हाथों काम करने में शायद आनन्द आता था। वह गरीब माता-पिता की बेटी थीं, दाननाथ के पिता भी मामूली आदमी थे; और फिर जिये भी बहुत कम। माता ने अगर इतनी किफायत से काम न लिया होता तो दाननाथ किसी दफ्तर के चपरासी होते। ऐसी महिला के लिए कृपणता स्वाभाविक ही थी। वह दाननाथ को अब भी वही बालक समझती थीं जो कभी उनकी गोद में खेला करता था। उनके जीवन का वह सब से आनन्द-प्रद समय होता था, जब दाननाथ के सामने थाल रखकर वह खिलाने बैठती थी। किसी महाराज या रसोइये, कहार या महरी को वह इस प्रानन्द में बाधा न डालने देना चाहती थीं। फिर वह जायँगी कैसे? जब तक दाननाथ को अपने सामने बैठकर खिला न लें, उन्हें सन्तोष न होता था। दाननाथ

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