पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

प्रतिज्ञा

प्राण तक निकालकर रख दे; पर इस शंका को उनके हृदय से न निकाल सकती थी। यदि प्रेमा की प्रेम-कथा उन्हें पहले से मालूम न होती, तो शायद वह अपने को संसार में सबसे सुखी आदमी समझते। उससे वह क्या चाहते थे—उसमें उन्हें कौन-सी कमी नज़र आती थी, यह वह खुद न जानते थे; पर एक अस्पष्ट-सी कल्पना किया करते थे कि तब कुछ और ही बात होती! वह नित्य इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे कि अमृतराय की ओर से इसका मत फेर दूं। वेतन के उपरान्त समाचार-पत्रों में लेख लिखकर, परीक्षा के पत्र देखकर उन्हें खासी रकम हाथ आ जाती थी। इससे वह प्रेमा के लिए भांति-भांति के उपहार लाया करते। अगर उनके बस की बात होती, तो वह आकाश के तारे तोड़ लाते; और उसके गले का हार बनाते। अपने साथी अध्यापकों से उसकी प्रशंसा करते उनकी ज़बान न थकती थी। उन्होंने पहले कभी कविता नहीं की थी। कवियों को तुकबन्द कहा करते थे लेकिन अब उनका गद्य भी कवितवमय होता था। प्रेमा कवित्व की सजीव मूर्ति थी। उसके एक-एक ढङ्ग, एक-एक भाव को देखकर कल्पना आप-ही-आप सजग हो जाती थी। उसके सम्मुख बैठकर उसे दुनिया की याद न रहती थी—सारा वायु-मण्डल स्वर्ग-मय हो जाता था। ऐसी कोमलता, ऐसा प्रकाश, ऐसा भाकर्षण, ऐसा माधुर्य, क्या पार्थिव हो सकता है। जब वह लम्बी-लम्बी हलकों से ढकी हुई, लज्जाशील, रसीली आँखों से उनकी ओर देखती तो दाननाथ का हृदय लहरा उठता था। सच्चा प्रेम, संयोग में भी वियोग की मधुर वेदना का अनुभव करता है। दाननाथ को प्रेमा अपने से दूर जान पड़ती थी।

१०८