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प्रतिज्ञा

उस पर भी दाननाथ के मन में यह शंका बनी हुई थी। वह बार-बार उसके अन्तस्तल में बैठकर देखना चाहते थे--एक बार उसकी मनोभावों की थाह लेना चाहते थे; लेकिन यह भी चाहते थे कि वह यह न समझे कि उसकी परीक्षा हो रही है। कहीं उसने भाँप लिया, तो अनर्थ हो जायगा। उसका कोमल हृदय उस परीक्षा का भार सह भी सकेगा या नहीं?

न-जाने क्यों दाननाथ को अब अमृतराय से द्वेष हो गया था। कदाचित् यह समझते थे कि उनके आनन्द-संगीत में यही एक कर्कश स्वर है। यह न होता तो उनके जीवन पर देवताओं को भी ईर्ष्या होती। वह अब भी अमृतराय के घर जाते थे, घण्टों बैठे रहते थे; लेकिन दोनों मित्रों में अब वह अभिन्नता न थी--अब वे एक जान दो क़ालिब न थे। अमृतराय भी यह बात समझते थे। उन्हें यह जानने की बड़ी उत्सुकता होती थी कि प्रेमा सुखी है या नहीं। वह एक बार उससे मिलकर उसका दिल अपनी ओर से साफ़ कर देना चाहते थे; लेकिन मौक़ा ऐसा नाजुक था कि इस विषय पर ज़बान खोलते संकोच ही नहीं, वरन भय होता था! दाननाथ इतना क्षुद्र हृदय है, यह उन्होंने न समझा था।

आखिर उन्होंने एक दिन कह ही डाला---आज-कल आईने में अपनी सूरत देखते हो?

दाननाथ ने प्रश्न का आशय न समझकर कहा--हाँ, देखता क्यों नहीं? कम से कम चार बार तो नियम से देखता हूँ।

अमृतराय--कोई अन्तर है।

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