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प्रतिज्ञा

दाननाथ---दुबला होता जाता हूँ।

अमृतराय--झूठ न बोलो यार, मुझे तो याद ही नहीं आता कि तुम इतने तैयार कभी थे। सच कहता हूँ; मैं तो तुम्हें बधाई देने जा रहा था। मगर डरता था कि तुम समझोगे यह नज़र लगा रहा है।

दाननाथ---मुझे तो प्रेमा यही कहती है कि तुम दुबले होते जा रहे हो; और मैं भी समझता हूँ कि वह ठीक कहती है। पहले अकेला और निर्द्वन्द्व था; अब गृहस्थी की चिन्ता सवार है। दुबला न हूँगा, तो क्या मोटा होऊँगा?

अमृतराय अपनी हँसी न रोक सके। दाननाथ को उन्होंने इतना मन्द-बुद्धि कभी न समझा था। दाननाथ ने समझा--यह मेरी हँसी उड़ाना चाहते है। मैं मोटा हूँ या दुबला हूँ, इनसे मतलब; यह कौन होते हैं पूछनेवाले? आप शायद यह सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रेमा की स्नेह-मय सेवा ने मुझे मोटा कर दिया। यही सही, तो आपको क्यों जलन होती है, क्या अब भी आपका उससे कुछ नाता है? मैले बर्तन में साफ पानी भी मैला हो जाता है। द्वेष से भरा हुआ हृदय पवित्र आमोद भी नहीं सह सकता। यह वही दाननाथ हैं, जो दूसरों को चुटकियों में उड़ाया करते हैं, अच्छे-अच्छों का क़ाफिया तङ्ग कर देते हैं। आज सारी बुद्धि घास खाने चली गई थी। वह समझ रहे थे कि यह महाशय मुझे भुलावा देकर प्रेमा की टोह लेना चाहते हैं। मुझी से उड़ने चले हैं। अभी कुछ दिन और पढ़ो। तब मेरे मुँह आना। बोले--तुम हँसे क्यों? क्या मैंने हँसी की बात कही है?

अमृतराय--नहीं भाई, मैं तुम्हारे ऊपर नहीं हँसा। हँसा इस बात

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