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प्रतिज्ञा


यह कहते-कहते वह उठ खड़े हुए। अमृतराय उस विषय में दाननाथ के विचारों से परिचित थे।

दाननाथ को 'उपकार' शब्द से घृणा थी। 'सेवा' को भी वह इतना घृणित समझते थे। उन्हें सेवा और उपकार के परदे में केवल अहङ्कार और ख्याति-प्रेम छिपा हुआ मालूम होता था। अमृतराय ने कुछ उत्तर न दिया। दाननाथ कोई उत्तर सुनने को तैयार भी न थे। उन्हें घर जाने की जल्दी थी; अतएव उन्होंने भी उठकर हाथ बढ़ा दिया। दाननाथ ने हाथ मिलाया और बिदा हो गये।

माघ का महीना था और अन्धेरा पाख। उस पर कुछ बादल भी छाया हुआ था। सड़क पर लालटेन जल रही थी। दाननाथ को इस समय काँपते हुए साइकिल पर चलना नागवार मालूम हो रहा था। मोटरें और तांगे सड़क पर दौड़ रहे थे। क्या उन्हें अपने जीवन में सवारी रखना नसीब ही न होगा? उन्हें ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी सदैव यही दशा रही। जब पढ़ते थे, तब भी तो आख़िर भोजन करते ही थे, कपड़े पहनते ही थे, अब खाने-पहनने के सिवा वह और क्या कर लेते हैं। कौन-सी जायदाद खरीद ली? कौन-सा विलास का सामान जमा कर लिया; और उस पर आप फ़रमाते हैं—तुम तैयार हो गये हो। बाप की कमाई है, मज़े से उड़ाते हैं, नहीं तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता—उपकार और सेवा सब धरी रह जाती।

घर पहुँचे, तो प्रेमा ने पूछा—आज बड़ी देर लगाई, कहाँ चले गये थे! देर करके आना हो, तो भोजन करके जाया करो।

दाननाथ ने घड़ी देखते हुए कहा—अभी तो बहुत देर नहीं हुई,

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