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प्रतिज्ञा

कन्हैया बनने की धुन है। दस-बीस जवान विधवाओं को इधर-उधर से एकत्र करके रासलीला सजायेंगे। चारदीवारी के अन्दर कौन देखता है, क्या हो रहा है।

दाननाथ दिल में अमृतराय को इतना नीच न समझते थे---कदापि नहीं। उन्होंने केवल प्रेमा को छेड़ने के लिए यह स्वाँग रचा था। प्रेमा बड़े असमञ्जस में पड़ गई। अमृतराय की यह निन्दा उसके लिए असह्य थी। उनके प्रति अब भी उसके मन में श्रद्धा यी। दाननाथ के विचार इतने कुत्सित हैं, इसकी उसे कल्पना भी न थी। बड़े-बड़े तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोली---मैं समझती हूँ कि तुम अमृतराय के साथ बड़ा अन्याय कर रहे हो। उनका हृदय विशुद्ध है, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं। वह जो कुछ करना चाहते हैं, उससे समाज का उपकार होगा या नहीं, यह तो दूसरी बात है; लेकिन उनके विषय में ऐसे शब्द मुँह से निकालकर तुम अपने हृदय का ओछापन दिखा रहे हो।

दाननाथ सन्नाटे में आ गये। उनके मन ने कहा---निकली न वही बात! यह तो में पहले ही कहता था। अगर प्रेमा का अमृतराय से कोई सम्बन्ध न होता---अगर प्रेमा की जगह कोई दूसरी स्त्री होती, तो क्या वह इतने तीक्ष्ण शब्दों में उनका प्रतिकार करती? कभी नहीं। इसकी आँखों से तो चिनगारियाँ निकलने लगो, नथने फड़कने लगे। यह मेरी कभी न होगी, कभी नहीं; मालूम होता है---मेरी बातें इसके दिल में चुभ गई। कोमल शब्दों में भी तो मुझ से विरोध कर सकती थी। खैर, देखूँ और क्या-क्या गुल खिलते हैं।

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