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प्रतिज्ञा

अमृत॰--तुम बड़े प्रभागे हो जो ऐसे सुन्दर व्याख्यान का आनन्द नहीं उठा सकते:

अमरनाथजी ने कहा--मैं आपके सामने व्याख्यान देने नही आया हूँ।

दान॰--( धीरे से ) और क्या आप घास खोदने आये हैं?

अमर॰--बातें बहुत हो चुकी, अब काम करने का समय है।

दान॰--( धीरे से ) जब आपकी ज़बान आपके क़ाबू में रहे?

अमर॰--आप लोगों में जिन महाशयों को पत्नी-वियोग हो चुका हो, वह कृपया अपना हाथ उठायें।

दान॰--ओफ्फ़ोह! यहाँ तो सब रँडुये ही रँडुए बैठे हैं!

अमर॰--आप लोगों में कितने महाशय ऐसे हैं, जो वैधव्य के भँव में पड़ी हुई अबलाओं के साथ अपने कर्तव्य का पालन करने का साह रखते हैं? कृपया वे हाथ उठाये रहें।

अरे! यह क्या? कहाँ तो चारो तरफ़ हाथ-ही-हाथ देख पड़ते थे कहाँ अब एक भी हाथ नज़र नहीं आता। हमारा युवक-समाज इतना कर्तव्य-शून्य, इतना साहस-हीन है! मगर नहीं--वह देखिये, एक हाथ अभी तक उठा हुआ है। वही एक हाथ युवक-मण्डली के ताज व रक्षा कर रहा है। सबकी आँखें उसी हाथ की तरफ़ फिर गई। अरे यह तो बाबू अमृतराय हैं।

दाननाथ अमृतराय के कान में कहा--यह तुम क्या कर रहे हो? हाथ नीचे करो।