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प्रतिज्ञा

दान॰---नहीं, अभी मेरे सामने कर दो। तुम्हें गाते-बजाते मन्दिर तक जाना पड़ेगा।

व्याख्यान हुआ; और ऐसे मार्के का हुआ कि शहर में धूम मच गई। पहले दस मिनट तक तो दाननाथ हिचकते रहे; लेकिन धीरे-धीरे उनकी वाणी में शक्ति और प्रवाह का सञ्चार होता गया। वह अपने ही शब्द-संगीत में मस्त हो गये। पूरे दो घण्टे तक सभा चित्रलिखित सी बैठी रही। और जब व्याख्यान समाप्त हुआ, तो लोगों को ऐसा अनुभव हो रहा था, मानों उनकी आँखें खुल गई। यह महाशय तो छिपे रुस्तम निकले। कितना पाण्डित्य है! कितनी विद्वत्ता है! सारे धर्म-ग्रन्थों को मथकर रख दिया है! अब दाननाथ मञ्च से उतरे तो हजारों आदमियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और उन पर अपने श्रद्धा-पुष्पों की वर्षा करने लगे। दाननाथ को ऐसा स्वर्गीय आनन्द अपने जीवन में कभी न मिला था।

रात के आठ बज गये थे। दाननाथ प्रेमा के साथ बैठे दूनकी उड़ा रहे थे--सच कहता हूँ प्रिये, कोई दस हज़ार आदमी थे; मगर क्या मजाल कि किसी के खाँसने की आवाज़ भी आती हो! सब-के-सब बुत बने बैठे थे। तुम कहोगी, यह ज़ीट उड़ा रहा है; पर मैंने लोगों को कभी इतना तल्लीन नहीं देखा।

सहसा एक मोटर द्वार पर आई; और उसमें से कौन उतरा, अमृतराय। उनकी परिचित आवाज़ दाननाथ के कानों में आई---अजी स्वामीजी, ज़रा बाहर तो आइये, या अन्दर ही डटे रहियेगा। आइये ज़रा आपकी पीठ ठोकूँ, सिर सहलाऊँ, कुछ इनाम दूँ।

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