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प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा

अमृतराय ने दृढ़ता से उत्तर दिया--क़दम आगे बढ़ाकर फिर छे नहीं हटा सकता।

वक्ता ने कहा--इतनी बड़ी सभा में केवल एक हाथ उठा देखता। क्या इतनी बड़ी सभा में केवल एक ही हृदय है, और सब पाण हैं?

अमृतराय ने दाननाथ के कान में कहा--तुम क्यों हाथ नहीं उठाते?

दान॰--मुझमें नक्कू बनने का साहस नहीं है।

अमर॰--अभी तक कोई दूसरा हाथ नहीं उठा। जैसी आपकी छा। मैं किसी को मजबूर नहीं करता; हाँ, इतनी प्रार्थना करता कि इन बातों को भूल न जाइयेगा। बाबू अमृतराय को मैं उनके हस पर बधाई देता हूँ।

सभा विसर्जित हो गई। लोग अपने-अपने घर चले। पण्डित अमरनाथ भी विदा हुए। केवल एक मनुष्य अभी तक सिर झुकाये भवन में बैठा हुआ था। यह बाबू अमृतराय थे।

दाननाथ ने एक मिनट तक बाहर खड़े होकर उनका इन्तज़ार किया। तब भवन में जाकर बोले--अरे, तो चलोगे या यही बैठे रहोगे?

अमृतराय ने चौंककर कहा--हाँ हो, चलो।

दोनो मित्र आकर टमटम पर बैठे। टमटम चला।

दाननाथ के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। बोले--आज तुम्हें यह क्या