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प्रतिज्ञा

प्रेमा--जी, ऐसे ही बड़े शीलवान् तो हैं आप, यह क्यों नहीं कहते कि वहाँ की बहार देखने को जी ललच उठा।

दान॰---कह लो जो चाहो; मगर मुझ पर अन्याय कर रही हो। मैं क़ैद से छूटकर भागा हूँ; बस इतना ही समझ लो। अम्माँजी भी बैठी है?

प्रेमा---उन्हें तो मैंने भोजन कराके भुला दिया। इस वक्त जागती होतीं, तो तुमसे डण्डों से बातें करतीं। सारी शरारत भूल जाते।

दान॰---तुमने भी क्यों न भोजन कर लिया?

प्रेमा---सिखा रहे हो, तो वह भी सीख लूँगी। भैया से मेल हुआ है, तो मेरा दशा भी भाभी की-सी होकर रहेगी।

दाननाथ इस आग्रह-मय अनुराग से गद्ग गद्ग हो गये। प्रेमा को गले लगाकर कहा--नहीं प्रिये, मैं वादा करता हूँ कि अब तुम्हें इस शिकायत का अवसर कभी न दूँगा। चलकर भोजन कर लो।

प्रेमा---और तुम?

दान॰---मैं तो भोजन कर आया।

प्रेमा---तो मैं भी कर चुकी।

दान॰---देखो प्रेमा, दिक न करो, मैं सच कहता हूँ, ख़ूब छककर खा आया हूँ।

प्रेमा ने न माना। दाननाथ को खिलाकर ही छोड़ा, तब खुद खाया। दाननाथ आज बहुत प्रसन्न थे। जिस आनन्द की--जिस शङ्कारहित आनन्द की---उन्होंने कल्पना की थी, उसका आज कुछ आभास हो रहा था। उनका दिल कह रहा था---मैं व्यर्थ ही इस पर शंका

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