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प्रतिज्ञा

करता हूँ; प्रेमा मेरी है, अवश्य मेरी है। अमृतराय के विरुद्ध आज मैंने इतनी बातें की और कहीं; फिर भी तीवर नहीं मैला हुआ। आज आठ महीनों के बाद दाननाथ को जीवन के सच्चे आनन्द का अनुभव हुआ।

प्रेमा ने पूछा---क्या सोचते हो?

दान॰---सोचता हूँ, मुझसे भाग्यवान् संसार में दूसरा कौन होगा?

प्रेमा---मैं तो हूँ।

दान॰---तुम देवी हो।

प्रेमा---और तुम मेरे प्राणेश्वर हो।

छः दिन बीत गये। कमलाप्रसाद और उसके मित्र-वृन्द रोज आते और शहर की खबरें सुना जाते। किन-किन रईसों को तोड़ा गया, किन-किन अधिकारियों को फाँसा गया, किन-किन मुहल्लों पर धावा हुआ, किस-किस कचहरी, किस-किस दफ्तर पर चढ़ाई हुई, यह सारी रिपोर्ट दाननाथ को सुनाई जाती। आज यह भी मालूम हो गया कि साहब बहादुर ने अमृतराय को ज़मीन देने से इन्कार कर दिया है। ईट-पत्थर अपने घर में भर रखे हैं। बस कॉलेजों के थोड़े-से विद्यार्थी रह गये हैं, सो उनका किया क्या हो सकता है? दाननाथ इन ख़बरों को प्रेमा से छिपाना चाहते थे; पर कमलाप्रसाद को कब चैन आता था। वह चलते वक्त संक्षिप्त रिपोर्ट उसे भी सुना देते।

सातवें दिन दोपहर को कमलाप्रसाद अपने मेल के और कितने ही आदमियों के साथ आये और बोले---चलो ज़रा बाहर का एक चक्कर लगा आयें।

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