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प्रतिज्ञा

नगर में एक ऐसा स्थान बनाने के लिए सहायता माँगी जाय, जहाँ हमारी अनाथ, आश्रय-हीन बहनें अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करते हुए शान्ति से रह सकें। कौन ऐसा मुहल्ला है, जहाँ ऐसी दस-पाँच बहनें नहीं हैं। उनके कार जो बीतती है, वह क्या आप अपनी आँखों से नहीं देखते? कम-से-कम उसका अनुमान तो कर ही सकते हैं। वे जिधर आँखें उठाती हैं, उधर ही उन्हें पिशाच खड़े दिखाई देते हैं; जो उनकी दीनावस्था को अपनी कुवासनाओं के पूरा करने का साधन बना लेते हैं। हमारी लाखों बहनें इस भाँति केवल जीवन-निर्वाह के लिए पतित हो जाती हैं। क्या आपको उन पर दया नहीं आती? मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि अगर उन बहनों को रूखी रोटियों और मोटे कपड़ों का भी सहारा हो, तो वे अन्त समय तक अपने सतीत्व की रक्षा करती रहें। स्त्री हारे दरजे ही दुराचारिणी होती है। अपने सतीत्व से अधिक उसे संसार की और किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता, न वह किसी चीज़ को इतना मूल्यवान् समझती है। आप सभी सज्जनों के कन्याएँ और बहनें होंगी, क्या उनके प्रति आपका कोई कर्त्तव्य

नहीं है? आप लोगों में ऐसा एक भी पुरुष है, जो इतना पाषाण-हृदय हो; मैं यह नहीं मान सकती। कौन कह सकता है कि अनाथों की जीव-रक्षा धर्म-विरुद्ध है? जो यह कहता है वह धर्म के नाम को कलंकित करता है। दया धर्म का मूल है। मेरे भाई बाबू अमृतराय ने ऐसा एक स्थान बनवाने का निश्चय किया है। वह अपनी सारी सम्पत्ति उस पर अर्पण कर चुके हैं। अब वह इस काम में आपकी मदद माँग रहे हैं। जिस आदमी के पास कल लाखों की जायदाद थी,

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