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प्रतिज्ञा

आज भिखारी बनकर आपसे भिक्षा माँग रहा है। आपमें सामर्थ्य हो तो उसे भिक्षा दीजिये। न सामर्थ्य हो तो कह दीजिये---भाई, दूसरा द्वार देखो; मगर उसे ठोकर तो न मारिये, उसे गालियाँ तो न दीजिये। यह व्यवहार आप जैसे पुरुषों को शोभा नहीं देता।

एक सज्जन बोले---कमला बाबू को क्यों नहीं समझातीं?

दूसरे सज्जन बोले---और बाबू दाननाथ भी तो हैं।

प्रेमा एक क्षण के लिए घबड़ा गई। इस आपत्ति का क्या उत्तर दे। आपत्ति सर्वथा न्याय-संगत थी। जो अपने घर के मनुष्यों को नहीं समझा सकता, वह दूसरों के समझाने के लिए किस मुँह से खड़ा हो सकता है? कुछ सोचकर बोली---हाँ, अवश्य हैं; लेकिन मुझे आध घण्टा पहले तक बिलकुल न मालूम था कि उन लोगों के सामाजिक उपदेशों का यह फल हो सकता है, जो सामने दिखाई दे रहा है। पिता हो, पति हो अथवा भाई हो, यदि उसने इस सभा में विघ्न डालने का कोई प्रयत्न किया है, तो मैं उसके इस काम को हेय समझती हूँ; लेकिन मुझे विश्वास नहीं आता कि कोई विचारवाला मनुष्य इतनी छोटी बात कर सकता है।

एक मोटे-ताजे पगड़ीवाले आदमी ने कहा---और जो हम कमला बाबू से पुछाय देई? हमका इहाँ का लेवे का रहा जौन औतेन। वही लोग भेजेन रहा, तब आयन।

गुण्डे का हृदय कितना सरल, कितना न्याय-प्रिय था! उसे अब ज्ञात हो रहा था कि अमृतराय अधर्म का प्रचार नहीं; धर्म का प्रचार कर रहे हैं। स्वयं उसकी एक विधवा बहन हाथ से निकल चुकी थी।

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