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प्रतिज्ञा

सुमित्रा ने उठकर उलझे केशों को सँभालते हुए कहा--आज इतने सबेरे कैसे जाग गई बहन?

प्रश्न बिलकुल साधारण था; किन्तु पूर्णा को ऐसा जान पड़ा कि यह उस मुख्य विषय की भूमिका है। इतने सवेरे जाग जाना ऐसा लांछन था, जिसे स्वीकार करने में किसी भयङ्कर बाधा की शंका हुई। बोली---क्या बहुत सबेरा है। रोज़ ही की बेला तो है।

सुमित्रा---नहीं बहन, आज बहुत सबेरा है। तुम्हें रात को नींद नहीं आई क्या? आँखें लाल हो रही है।

पूर्णा का कलेजा धक् धक् करने लगा। यह दूसरा और पहले से भी बड़ा लाञ्छन था। इसे वह कैसे स्वीकार कर सकती थी? बोली तुम्हें भ्रम हो रहा है। रात बहुत सोई। एक ही नींद में भोर हो गया। बहुत सो जाने से भी आँखें लाल हो जाती हैं।

सुमित्रा ने हँसकर कहा---होती होंगी, मुझे नहीं मालूम था।

पूर्णा ने ज़ोर देकर कहा---वाह! इतनी-सी बात तुम्हें मालूम नहीं। हाँ, तुम्हें अलबत्ता नींद नहीं आई। क्या सारी रात जागती रहीं?

सुमित्रा---मेरी बला जागे। जिसे हज़ार बार गरज़ होगी, आयेगा। यहाँ ऐसी क्या पड़ी है? वह राजी ही रहते थे, तो कौन स्वर्ग मिला जाता था। तब तो और भी जलाते थे। यहाँ तो भाग्य में रोने के सिवाय और कुछ लिखा ही नहीं।

पूर्णा--तुम तो व्यर्थ का मान किये बैठी हो बहन! एक बार चली क्यों नहीं जातीं?

सुमित्रा के जी में आया कि रात की कथा कह सुनाये; पर

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