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प्रतिज्ञा

सड़्कोच ने ज़बान बन्द कर दी। बोली---यह तो न होगा बहन! चाहे सारा जीवन इसी तरह कट जाय। मेरा कोई अपराध हो, तो मैं जाकर मनाऊँ। अन्याय वह करें मनाने मैं जाऊँ, यह नहीं हो सकता।

यह कहते-कहते उसे रात का अपमान याद आ गया। वह घण्टों बार पर खड़ी थी। वह जागते थे--अवश्य जागते थे; फिर भी किवाड़ न खोले। त्योरियाँ चढ़ाकर बोली---फिर क्यों मनाने जाऊँ? मैं किसी का कुछ नहीं जानती। चाहे एक ख़र्च किया, चाहे सौ; मेरे बाप ने दिये और अब भी देते जाते हैं। इनके घर में पड़ी हूँ, इतना गुनाह अलबत्ता किया है। आख़िर पुरुष अपनी स्त्री पर क्यों इतना रोब जमाता है? बहन, कुछ तुम्हारी समझ में आता है?

पूर्णा ने रहस्यमय भाव से मुस्कराकर कहा---क्या यह आज की नई बात है? पुरुष ने सदैव स्त्री की रक्षा की है; फिर रोब क्यों न जमाए?

सुमित्रा---रक्षा की है, तो अपने स्वार्थ से; कुछ इसलिये नहीं कि स्त्रियों के प्रति उनके भाव बड़े उदार हैं। अपनी जायदाद के लिए संतान की ज़रूरत न होती, तो कोई स्त्री की बात भी न पूछता। जो स्त्रियाँ बाँझ रह जाती हैं, उनकी कितनी दुर्दशा होती है---रोज़ ही देखती हो। हाँ, लम्पटों को बात छोड़ो, जो वेश्याओं पर प्राण देते हैं।

पूर्णा---मैं तो ऐसी कई औरतों को जानती हूँ, जो पुरुषों ही पर रोब जमाती है, यह क्यों?

सुमित्रा---वह निकम्मे पुरुष होंगे।

पूर्णा---नहीं बहन, निकम्मे नहीं, सौ कमाउओंमें कमाऊ। एक

नहीं, दस-पाँच सो अपने मुहल्ले में ही गिनवा दूँ। और बाहर कहाँ

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