कहार चला गया, तो पूर्णा ने कहा---बहन, क्यों रार बढ़ाती हो। लाओ, मुझे कुञ्जी दे दो, मैं निकालकर दे दूँ; उनका क्रोध जानती हो?
सुमित्रा--यहाँ किसी की धौंस सहनेवाली नहीं हूँ। सौ दफे गरज़ हो, आकर अपनी अचकन ले जायँ। मुझे कोई तनख्वाह नहीं देते।
कहार ने लौटकर कहा---सरकार कहते हैं कि अचकन लोहेवाली सन्दूक माँ धरी है।
सुमित्रा---तू ने कहा नहीं कि जाकर निकाल लाओ। क्या इतना कहते जीभ गिरी जाती थी?
कहार---ई तो हम नाहीं कहा सरकार! आप दूनों परानी छिन-भर माँ एक्के होइहैं, बीच में हमार कुटम्मस होइ जाई।
सुमित्रा---अच्छा, तो यहाँ भाग जा, नहीं पहले मैं ही पीटूँगी।
कहार मुँह-लगा था। बोला---सरकार का जितना मारै का होय मार लें; मुदा बाबूजी से न पिटावें। अस घूसा मारत है सरकार कि कोस-भर लै धमाका सुनात है।
सुमित्रा को हँसी आ गई। हँसती हुई बोली---तू भी तो इसी तरह अपनी मेहरिया को पीटता है। यह उसी का दण्ड है।
कहार---अरे सरकार, जो ई होत त का पूछे का रहा। मेहरिया अस गुनन की पूरी मिली है कि बात पीछू करत है, झाडू पहले चलावत है। जो सरकार, सुन-भर पावे कि कौनो दूसरी मेहरिया से हँसत
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