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प्रतिज्ञा

के विचार में सारा दोष सुमित्रा ही के सिर था। ज़रा उठकर अचकन निकाल देती, तो इस ठायँ-ठायँ की नौबत ही क्यों आती। औरत को मर्द के मुँह लगना शोभा नहीं देता। न-जाने इसके मुँह से ऐसे कठोर शब्द कैसे निकले? पत्थर का कलेजा है। बेचारे कमला बाबू तो जैसे ठक रह गये। ऐसी औरत की अगर मर्द बात न पूछे, तो गिला कैसा?

सहसा सुमित्रा बोली---बहुत ताव दिखाकर गये हैं, मेरा क्या कर लेंगे? अब सीधे हो जायँगे, देख लेना। ऐसे मर्दों की यही दवा है। तुम्हारा मैंने बड़ा लिहाज़ किया, नहीं तो ऐसा-ऐसा सुनाती कि कान के कीड़े मर जाते।

पूर्णा---सुनाने में तो तुमने कोई बात उठा नहीं रखी बहन! दूसरा मर्द होता तो न-जाने क्या करता।

सुमित्रा---जो कहेगा वह सुनेगा ही---हज़ार बार सुनेगा। दबे वह, जो किसी का दिया खाती हो।।मैं तो अपने आप से कभी नहीं दबी, इनका मैं क्या जानती हूँ। सौ-सौ सादियाँ करने की बात कहते हुए भी जिसे लज्जा न आये, वह भी कोई आदमी है।

पूर्णा---बहन, और दिनों की तो मैं नहीं चलाती; पर आज तुम्हारी ही हठधर्मी थी।

सुमित्रा---अच्छा, जले पर नमक न छिड़को सखी। जिसके ऊपर पड़ती है, वही जानता है।

पूर्णा---मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही बहन, मुझ पर नाहक़ बिगड़ती हो!

सुमित्रा---सारा दोष मेरे सिर मढ़ रही हो और क्या लाठियों से

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