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प्रतिज्ञा

बुरा लगेगा बहन! क्या मेरी छाती पर बैठी हो। न मेरा घर, न मेरा द्वार; न मैं लेने में, न देने में—मैं क्यों बुरा मानने लगी? मैं ही क्यों न कहीं हूब मरूँ कि सारा घर शान्त हो जाय। विष की गाँठ तो मैं हूँ। सारे घर का तो मेरे मारे नाक में दम है। मैं ही सबकी आँखों में खटकती हूँ।

पूर्णा ने ये बातें मानो सुनी ही नहीं। बहुएँ पति से रूठकर प्रायः ऐसी विरागपूर्ण बातें किया ही करती हैं। यह कोई नई बात नहीं थी। वह अपने ही को सुनाकर बोली—मैं जानती थी कि अपने झोंपड़े से पाँव बाहर निकालना मेरे लिए बुरा होगा। जान-बूझकर मैंने अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी। मैं कमला बाबू की बातों में आ गई। इतनी जग-हँसाई और भाग में लिखी थी।

सुमित्रा ने तीव्र स्वर में कहा—तो उन बाबू साहब ने तो तुम्हें कुछ नहीं कहा।

उसने अपना वाक्य समाप्त तो कर दिया; पर मुख की चेष्टा से ज्ञात होता था कि वह और कुछ कहना चाहती है, लेकिन किसी कारणवश नहीं कह रही है।

पूर्णा ने द्वार की ओर जाते हुए रूखे स्वर में कहा—मेरे लिए जैसे कमला बाबू वैसी तुम।

सुमित्रा—तो जाती कहाँ हो, ज़रा बैठो तो।

पूर्णा—नहीं बहन, बैठने का प्रसाद पा गई, अब जाने दो।

पूर्णा इधर अपने कमरे में आकर रोने लगी। उधर सुमित्रा ने हारमोनियम पर गाना शुरू किया:—

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