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प्रतिज्ञा
ऊधो स्वारथ का संसार।

यह गाना था या पूर्णा पर विजय पाने का आह्वाद! पूर्णा को तो यह विजय-गान-सा ही प्रतीत हुआ। एक-एक स्वर उसके हृदय पर एक-एक शर के समान चोट कर रहा था। क्या अब इस घर में उसका निबाह हो सकता है? असम्भव! न-जाने वह कौन-सी मनहूस घड़ी थी, जब वह इस घर में आई? अपने उस झोंपड़े में रहकर सिलाई करके या चक्की पीसकर क्या वह जीवन व्यतीत न कर सकती थी? बेचारी बिल्लो अन्त तक उसे समझाती रही; पर भाग्य में तो ये धक्के खाने लिखे थे, उसकी बात कैसे मानती?

अब पूर्णा का हृदय एक बार कमलाप्रसाद से बातें करने के लिए व्याकुल हो उठा। वह उनसे स्पष्ट कह देना चाहती थी कि वह इस घर में नहीं रह सकती। उनके सिवाय और किससे कहे? लाला बदरीप्रसाद हँसकर टाल देंगे। अम्माँ समझेगी कि यह मेरी बहू की बराबरी कर रही है। अभी से चले जाने में कुशल है। कहीं कोई दूसरा उपद्रव उठ खड़ा हो तो कहीं मुँह दिखाने लायक भी न रहूँ। सुमित्रा चाहे जो लाञ्छन लगा दे, दुनिया उसी की बात मानेगी।

पूर्णा रात ही से एकान्त में रात के समय कमला के पास जाने पर पछता रही थी---उन भले आदमी को भी उस समय चुहल करने की सूझ गई। मगर वह साड़ी मुझ पर खिल खूब रही थी। मुझे वहाँ जाना ही न चाहिये था; पर एक बार और उनसे मिलना होगा। मैं द्वार पर खड़ी रहूँगी, मुझे कमरे में जाने की ज़रूरत हो क्या है? खड़े-खड़े कह दूँगी--बाबूजी, अब मुझे आप जाने दीजिये। और कहीं

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