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प्रतिज्ञा

मन को दूसरी ओर फेरना चाहता हूँ; पर कोई बस नहीं चलता। यही समझ लो कि मेरा जीवन तुम्हारी दया पर है।

यह कहते-कहते कमला का गला भर आया। उसने रूमाल निकालकर आँखें पोंछीं, मानो उनमें आँसू छलक रहा है।

पूर्णा पाषाण-प्रतिमा की भाँति निस्पन्द खड़ी थी। उसकी सारी बुद्धि, सारी चेतना, सारी आत्मा मानो उमड़ती हुई लहरों में बही जा रही हो, और कोई उसकी आर्तध्वनि पर कान न देता हो। मनुष्य, पशु-पक्षी, तट के वृक्ष और बस्तियाँ सब भागी जाती हो, उससे दूर---कोसों दूर! वह खड़ी न रह सकी---भूमि पर बैठकर उसने एक ठण्डी साँस ली और फूट-फूटकर रोने लगी।

कमला ने समीप जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और गला साफ़ करके बोले---पूर्णा, तुम जिस संकट में हो, मैं उसे जानता हूँ; लेकिन सोचो, एक जीवन का मूल्य क्या एक पूर्व-स्मृति के बराबर भी नहीं? मैं तुम्हारी पति-भक्ति के आदर्श को समझता हूँ। अपने स्वामी से तुम्हें कितना प्रेम था, यह देख चुका हूँ। उन्हें तुमसे कितना प्रेम था, यह भी देख चुका हूँ। अक्सर पार्क में हरी-हरी घास पर लेटे हुए वह घण्टों तुम्हारा कीर्ति-गान किया करते थे। मैं सुन-सुनकर उनके भाग्य को सराहता था और इच्छा होती थी कि तुम्हें एक बार पा जाता तो तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर रोता। सुमित्रा से दिन-दिन घृणा होती जाती थी। यह उन्हीं का बोया हुमा बीज है जो आज फूलने और फलने के लिए विकल हो रहा है।

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