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प्रतिज्ञा

सारा ज़माना छूट जाय; पर तुम मुझसे नहीं छूट सकतीं। जीवन-भर के लिए यही घर तुम्हारा घर है और मैं तुम्हारा दास हूँ। जिस दिन तुमने यहाँ से जाने का नाम लिया, उसी दिन मैंने किसी तरफ का रास्ता लिया।

पूर्णा ने एक क्षण तक विचार करने के बाद क्षीण स्वर में कहा---इसका नतीजा क्या होगा बाबूजी, मेरी समझ में कुछ नहीं आता। चोरी-छिपे का धन्धा कब तक चलेगा? आख़िर एक दिन तुम्हारा मन मुझसे फिर जायगा। समझने लगोगे---यह कहाँ का रोग मैंने पाला, तब मेरी क्या गति होगी, सोचो!

कमला ने दृढ़ता से कहा---ऐसी शंकाओं को मन में मत आने दो प्रिये! आख़िर विवाहिता ही क्या पुरुष को जञ्जीर से बाँधकर रखती हैं? वहाँ भी तो पुरुष वचन ही का पालन करता है। जो वचन का पालन नहीं करना चाहता, क्या-विवाह उसे किसी तरह मजबूर कर सकता है? सुमित्रा मेरी विवाहिता होकर ही क्या ज्यादा सुखी हो सकती है? यह तो मन मिले की बात है। जब विवाह के अवसर पर बिना जाने बूझे कही जानेवाली बात का इतना महत्व है, तो क्या प्रेम से भरे हुए हृदय से निकलनेवाली बात का कोई महत्त्व ही नहीं? ज़रा सोचो। आदमी जीवन में सुख ही तो चाहता है या और कुछ? फिर जिस प्राणी के साथ उसका जीवन सुखमय हो रहा है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है---उसके साथ कैसे निठुरता या कपट कर सकता है?

पूर्णा ने कोमल आपत्ति के भाव से कहा---विवाह की बात और होती है बाबूजी, मैं ऐसी नादान नहीं हूँ।

कमला ने मुस्कराकर कहा---नहीं, तुम भला नादान हो सकती हो,

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