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प्रतिज्ञा

समझ रही हो, वही लड़कों का खेल है। ढोल-मजीरा बजा, आतश-बाजियाँ छूटीं और दो अबोध बालक, जो विवाह का मर्म तक नहीं समझते, एक दूसरे के गले जीवन-पर्यन्त के लिए मढ़ दिये गये। सच पूछो तो यही लड़कों का खेल है।

पूर्णा ने फिर शङ्का की---दुनिया तो इस विवाह को मानती नहीं।

कमलाप्रसाद ने उत्तेजित होकर कहा---दुनिया अन्धी है, उसके सारे व्यापार उलटे हैं। मैं ऐसी दुनिया की परवाह नहीं करता। मनुष्य को ईश्वर ने इसीलिए नहीं बनाया है कि वह रो-रोकर ज़िन्दगी के दिन काटे, केवल इसलिए कि दुनिया ऐसा चाहती है। साधारण कामों में जब हमसे कोई भूल हो जाती है, तो हम उसे तुरन्त सुधारते हैं। तब जीवन को हम क्यों एक भूल के पीछे नष्ट कर दें। अगर आज किसी दैवी बाधा से यह मकान गिर पड़े, तो हम कल ही इसे फिर बनाना शुरू कर देंगे; मगर जब किसी अबला के जीवन पर दैवी आघात हो जाता है, तो उससे आशा की जाती है कि यह सदैव उसके नाम को रोती रहे। यह कितना बड़ा अन्याय है। पुरुषों ने यह विधान केवल अपनी काम-वासना को तृप्त करने के लिए किया है। बस, इसका और कोई अर्थ नहीं। जिसने यह व्यवस्था की, वह चाहे देवता हो या ऋषि अथवा महात्मा, मैं उसे मानव-समाज का सबसे बड़ा शत्रु समझता हूँ। स्त्रियों के लिए पतिव्रत-धर्म की पख लगा दी। पुनः संस्कार होता, तो इतनी अनाथ स्त्रियाँ उनके पल्ले में कैसे फँसतीं। बस, यही सारा रहस्य है। न्याय तो हम तब समझते, जब पुरुषों को भी यही निषेध होता।